Friday, 2 May 2014

एक परिकल्पना . . .

आज शाम जब घर जा रही थी तब मानस पर अचानक एक सवाल उठा और एक के बाद एक सवालों की श्रृंखला सी बन गयी। अजीब सा सवाल। तुम कौन हो? आखिर हो कौन तुम?की  बस तुम्हारे लिये मैने अपनी जीवन की क़िताब के काई पन्ने बिन पढें ही छोङ दिए। तुम्हारा एक नया अध्याय बन कर आना मेरे पुराने अध्यायों को अतृप्त और अनछुआ छोड़ गया। 

मन वचन ओर कर्म से मै तुम्हारी पत्नी हूँ और तुम मेरे पति।  धर्म की चादर उढ़ा दो तो तुम्हारी अर्धांगिनी वामंगिनी और तुम्हारे शिव रुप की शक्ति। पर यह सब जानने के बाद भी मन सहसा प्रश्न करता है कि तुम ही क्यों ? यह कैसा नाता है तुमसे मेरा धर्म और कर्म दोनो का। जीवन के वह क्षण कभी नहीं भूलेंगे जब तुमसे एक मुलाकात मे अनुभव हुआ कि तमाम उलझनों के बावजूद मेरी पतंग की डोर तुम्हारे आँगन मे ही जा कटी  है।  कई दफे मिले थे हम उससे पहले। उन दिनों मैं नदी सी उफनाती कभी किसी ओर कभी किसी घाट बहतीं थी।  अशांत से जीवन में तुमसे वह एक मुलाकत उस नदी की सारी चंचलता ओर चपलता सागर की गहरायी और व्यापकता मे परिवर्तित कर गयी। जीवन के उतार चढ़ावों मे बस तुमतक पहूंचने को मैने अपने समस्त मद को एक लय मे बाँधा। 

मैं कला की पुजारी हूँ और मेरे लिये तुम कला हो। वह मेरी किसी लहर का वेग था जो तुम्को मुझतक खीँच लाया। आज इतने वक्त बाद अपनी क्षमताओं मे एक ठहराव का जो समावेश दिखता है वो तुम्हारी उपस्थिति का पर्याय है। तुम्हारे आने से जीवन की कई व्याख्याओं को नये समीकरण मिले है। 

फिर लोग क्यों कहते हैं कि यह सही नही ? मैं जानती हूँ हमारे रिश्ते कि दिशा ओर दशा। तुम भी समझते हो। तुमसे ही यह समझ आई है मुझमें। खुद को परिपक्व होते देखा है मैने। मैं अपूर्ण हूँ तुम्हारे बिना और तुम भी अपने जीवन को मेरे सँग परिभाषित करते हो। फिर ये क्या सही और गलत के मापदंडों मे हमारे रिश्ते को तौलना उचित है ? कोई भी किस हद तक सही य गलत है वह उसकी परिस्थितियो पर निर्भर करता है।  जिस क्षण किसी काम के लिये मै गलत हूँ उसी काम के लिये उसी क्षण कोइ और सही होगा।  यह केवल समय निर्धारित कर सकता है।  इसके नाप तौल के उपकरण अलग होँगे। मैं केवल अपने जीवन के समीकरणों को बदलने वाले तुम से यह जानना चाहती हूँ कि बस तुम हि क्योँ ?

ना कोई गुण ना कोइ रूप जिसे मै पहचानती हूँ। ना ही ऐसा की तुमसे अधिक रूपवान गुणवान ओर विदवान सम्स्त ब्रम्हांड मे नही है। तुमसे मेरे मन की निजता मेरे प्रेम को कई उपमायें देती हैं। जीवन की राहों पर एक मधुर संगीत सा , ढलती शाम के दिये सा ,या रणक्षेत्र मे तुमहारा मुझ पार्थ का सार्थी बन कर खडे होना। धर्म या कर्म किस रूप मे मै सही या गलत किस ओर खड़ी हूँ मै नहि जांति पर इस युध्क्षेत्र मे मुझे एक विरोधाभास से प्रेम है और तुम हो वह विरोधाभास। शायद यही है मेरे प्रश्न का उत्तर  ...