मिलियन शेड्स ऑफ़ ग्रे
जीवन में निराशावाद का दौर बेहद खतरनाक होता है। सब कुछ होते हुए भी कुछ न हो पाने का एहसास। सबके होते हुए भी भीतर से अकेलेपन का होना आपको खाता जाता है बल्ली पर लगे हुए घुन की तरह। जीवन का एक ढर्रे में बदल जाना, कुछ बदलने की उम्मीद का खो जाना, अपने लक्ष्य का धूमिल होना ऐसा है मानो रेत पर मक़ान बनाना और समंदर के खारे पानी से सब धुल जाना।
ये ऐसा है जैसे बस जिए जाना। किसी ऐसे रस्ते पर चलते जाना जिसमे मंज़िल का कुछ पता ही न हो। कुछ ऐसा जैसे विचार शून्य होने पर होता है। जैसे घने कोहरे में चलना। या जैसे रंगों का न दिखना, सब श्याम धूमिल हो जाना। या शायद पता नहीं कैसा। पर बहुत ही निराशाजनक।
ऐसे समय में मुझे लिखना बहुत पसंद है। यूँ तो रोज़मर्रा में 24 घण्टे 24 सेकण्ड की तरह बीत जाते हैं पर निराशा में समय नहीं कटता। आपका भी नहीं कटता होगा शायद। पर निराश न हों निराशा का समय भी बीत जाता है।
अभी दरवाज़े के ऊपर वाले रौशनदान में दो गौरैया कूक रहीं थी। बहुत खुश थीं। आवाज़ सुन कर निराशा में कुछ और कमी हुई लेकिन उनके उड़ जाने के बाद वही निराशा दुगनी हो गयी। फिर क़लम उठाया तो उसका पॉइंट टूट गया गिर के, लैपटॉप खोला तो उसमें बैटरी नही थी। वो सब मेरे साथ निराशा के साथी बन रहे थे।
निराशा में मुझे सब सफेद नज़र आता है। सफेद रास्ता, सफेद दीवारें, सफेद कागज़ और उसपे लिखा हुआ भी सब सफेद। कई दिनों से सब सफेद ही दिख रहा है। अब तक कोहरा सफ़ेद था पर अब धूप भी सफ़ेद है। पर ये सफ़ेद रंग चमकदार नहीं है, इसमें सब कुछ ग्रे सा है; ग्रे के कई शेड्स सा। मिलियन शेड्स ऑफ़ ग्रे।
मैं निराशा में क़लम से दोस्ती कर लेती हूँ। लिखती हूँ , खूब लिखती हूँ , कुछ भी लिखती हूँ। रंग बदरंग सफ़ेद धूमिल धुआं कोहरा सब लिखती हूँ। कलम का टूटना भी लिखती हूँ चिड़िया का चहकना भी, रेत के मक़ान का ढहना भी, ग्रे के कई शेड्स भी, बल्ली पर लगा घुन भी, लिखती रहती हूँ, रुकना नहीं चाहती और भी लिखना चाहती हूँ। शब्द बनते नहीं तब भी, मेल मिलता नहीं तब भी, तुक सजता नही तब भी, हर वक़्त कलम के साथ कुछ भी लिखना चाहती हूँ ।
पर हाँ इसका ये बिलकुल भी मतलब नहीं कि मैं निराश हूँ।