ये कौन चित्रकार है ? ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है? प्यार से चुनकर इन रंगों को , किसी से सजाया ये संसार है| जो इतनी सुंदर है अपनी दुनिया, ऊपर वाला क्या कोई कलाकार है ? जी हाँ मैं गा तो गाना ही रही हूँ लेकिन ये गाने मुझे ऐसी ही किसी कलाकारी को देख कर याद आये | कई सालों बाद इस बार गर्मियों की छुट्टी में कहीं घूमने का मन बना | जब छोटे थे तो गर्मियां यानि नानी का घर और बड़े होते होते इतनी जिम्मेदारियां आ पड़ी कि अब तो अपने खुद के घर जाने का ही वक्त नहीं मिलता | इतनी व्यस्तताएं है इन्सान के जीवन में कि उसमें से रंग उड़ते जा रहे है | सब मोनोक्रोम सा होता जा रहा है |
तो बस इन्हीं रंगों को अपनी मोनोक्रोम सी जिंदगी में वापस उड़ेलने के लिए मैं अपना झोला उठाकर पतिदेव के साथ घूमने निकल पड़ी भारत के पूर्वोतर दिशा की ओर| समन्दरों में अपने पैर बहुत धोये है तो अबकी मन हुआ की हाथ उठा कर चलें बादलों को छू आयें | और फिर क्या था, वहां जो देखा आपसे साझा करती हूँ |
कभी पुरानी हिंदी फिल्मों को देखते हुए सोचा करते थे कि कहीं ऐसा भी होता है क्या ? हर ओर हरियाली, ऊंचे पहाड़, कदमों पर बहते झरने, आसमान छूते पेड़ , बादलों की ओट से ताका झांकी करता सूरज और प्रकृति के ढेर सारे रंग |हम समतल इलाकों में रहने वाले लोगों का ये दुर्भाग्य है | यहाँ प्रकृति से इतना खिलवाड़ हो चुका है कि हमारी आने वाली पुश्तें इस सम्पदा से शायद ही रूबरू हो पायें | खैर तो हमारा प्लान बना दार्जीलिंग और गंगटोक जाने का | आपको बता दें कि दार्जीलिंग भारत के चौथे सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य पश्चिम बंगाल का हिस्सा है वहीँ गंगटोक भारत के सबसे कम जनसंख्या वाले राज्य सिक्किम की राजधानी है | इनदोनो शहरों में 60 मील यानि लगभग 98 किलोमीटर की दूरी है |
लखनऊ से जाने के लिए कई साधन उपलब्ध हैं बनस्पत बस, ट्रेन और हवाई यात्रा| बस का सफर काफी लम्बा और थकान से भरा हो जाता है| ट्रेन लखनऊ से सिलिगुड़ी और न्यू जलपाईगुड़ी के लिए उपलब्ध है जिससे बाई रोड दार्जीलिंग पहुंचा जा सकता है | पर समय के आभाव के कारण हमने हवाई यात्रा करना उचित समझा | दार्जीलिंग से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है बागडोगरा हवाई अड्डा जो सिलीगुड़ी से 16 किलोमीटर की दूरी पर है और दार्जीलिंग से इसकी दूरी कुछ 65 किमी है | फ़िलहाल लखनऊ से बागडोगरा डायरेक्ट विमान न होने के कारण हम पहले कलकत्ता गये और वहां पर एक घंटे के ठहराव के बाद पहुचे बागडोगरा | हवाई अड्डे पर आपको निजी टैक्सी कंपनियां मिल जाएंगी जो आपको सीधे दार्जीलिंग तक ले जाएंगी |
वैसे आजकल तो सूचना और तकनीकी का युग है और सभी
सुविधाओं के लिए इन्टरनेट के माध्यम से पहले ही बुकिंग हो जाती है | तो हमारी टैक्सी बुक थी | उसने हमें वहां से पिक किया और फिर हम उस छोटी सी चारपहिया गाड़ी में निकल पड़े ऊंचे पहाड़ों की गोद में घूमने |
सिलीगुड़ी से दार्जीलिंग-
हमारा विमान हवाई अड्डे पर शाम 5 बजकर 40 मिनट पर लैंड हुआ और सामान लेकर बाहर आते और निकलते बज गया पूरा छह| समतल इलाकों में गर्मी के मौसम में 6 बजे ठीक ठाक धूप खिली रहती है पर पहाड़ों में माहौल ज़रा अलग होता है | सूरज अस्त होने चला था | शहर में तो उजाला सा दिखता था पर जैसे जैसे हम शहर छोड़ते जा रहे थे, अँधेरा अपनी जुल्फें बिखेरने लगा था | कार की खिड़की से ठंडी हवाओं के झोंके सारी थकान पिए ले रहे थे | तभी काले से बादलों का एक झुण्ड दिखा, लगा मानो कस के बरसेगा | पर फिर धीरे से उसके पीछे एक विशाल आकृति वाला पूरा हरा पहाड़ झाँकने लगा | हर दो मिनट पर इसी तरह के नजारे दिखने लगे और हम धीरे से उन हरे पहाड़ों के बीच गोल घुमावदार रस्तों पर आ पहुंचे | सिलीगुड़ी के ये जंगल पश्चिम बंगाल के दोआर कहे जाते हैं जिन्हें हम सदाबहार वर्षावनों के नाम से भी जानते हैं | इनमे हमारे देश का बेहतरीन वनस्पति और प्राणिजात पाया जाता है |
रात गहरा रही थी | संकरे और घुमावदार रस्तों पर गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी | हर तीखे मोड़ पर कलेजा मुह को आ जाता था | काले घने जंगल , भीषण अँधेरे रास्ते और उस पर तेज़ गोल मोड़ों पर चलती गाड़ियों की चकाचौंध कर देने वाली रौशनी | हाँ वो ड्राईवर वहां के रास्तों के हिसाब से सधे हुए होते हैं पर मैं तो डर के मारे सीट को कस कर बैठी थी | अचानक सामने घना कोहरा छा जाता है जिसके आगे क्या रास्ता है मालूम नहीं | और फिर तेज़ी से आती हुई गाड़ी की हाई बीम लाइट , उसके बाद दूसरी और फिर तीसरी| कौतूहलवश मैंने ड्राईवर से पूछा कि ये अचानक इतना कोहरा कैसे? वो बोला मैडम ये बादल हैं कोहरा नहीं | बहार का मौसम सर्द था इसलिए खिड़की खोल कर उन्हें छूना सही नहीं लगा और मेरी तो हालत यूँही डर से ख़राब थी उसपर ये बादल जिनसे बचे खुचे रास्ते भी नहीं दिख रहे थे | ड्राईवर का वही काम है ये जानते हुए भी मुझसे रुका न गया और मैं उससे बोली,” भईया बड़े आराम से चलाना हमें कोई जल्दी नहीं है |” और इसी तरह रात के कुछ साढ़े आठ बजे हम दार्जीलिंग की माल रोड स्थित अपने होटल पहुँच गए | पहाड़ों पर रात का नज़ारा कमाल अमरोही की पाकीज़ा फ़िल्म के ठीक उसी गाने जैसा था जिसमे मीना कुमारी कह रही है “ ये रात ये ख़ामोशी, ये ख़्वाब से नज़ारे| जुगनू हों या ज़मीं पर उतरे हुयें हैं तारे”| हमारे कमरे की बालकनी के सामने था दार्जीलिंग पोस्ट ऑफिस का घंटा घर जिसमे एक बाद एक नौ घंटे बजे | नीचे चमकीली सी सड़क पर अब सन्नाटा पसरने लगा था और पलकों के शामियाने जैसा वो पूरा नज़ारा दिवाली सी इक रात के आगोश में जा रहा था | थक कर हम भी सोने चले गये |
पहला दिन: हरियाली की गोद में बसा दार्जीलिंग-
अचानक सुबह मैं हडबडा कर उठती हूँ और देखती हूँ कि इतना उजाला है मालूम पड़ता है सुबह का आठ बज गया और हम सोते ही रह गये | यूँ तो देर हो जाएगी निकलने में और बाकी की चीज़े कैसे देखेंगे | मोबाइल उठाकर समय देखती हूँ तो अभी सुबह के चार बजकर चौदह मिनट ही हुए है | पर ये कैसे? हमारे यहाँ तो अँधेरा रहता है | मैं उठकर बालकनी में गयी तो देखा घंटा घर सवाचार बजा रहा था | बायीं ओर से बादल दौड़ भाग लागए थे और सामने नीचे की ओर कुछ बादल थक कर सुस्ता रहे थे | और मज़ेदार तो ये था की उपर पूरा नीला असमान खुला हुआ था | कहीं पीछे से धूप सामने के एक पहाड़ पर पड़ रही थी और दृश्य हरे, सफेद और सुनहरे रंगों से सजा हुआ था | मैंने पीछे से कुर्सी खिंची और सोचा की अंदर से कॉफ़ी बना लाऊं , यहीं बैठकर पियूंगी ; रोज़ रोज़ ऐसे नज़ारे नहीं मिलते | अंदर से दो मिनट के अंदर मैं कॉफ़ी लेकर वापस आती हूँ तो देखती हूँ कि जो बादल सुस्ता रहे थे अब उस सुनहरे पहाड़ तक दौड़ गये और पूरा आसमान बादलों से ढक गया |
उस रोज़ हमारी घुम्मक्कड़ीकी लिस्ट में सबसे पहले था पीस पगोडा| आपको बताते चलें कि जापानी बौद्ध साधु निचिदात्सू फुजी के निर्देश में यह पीस पगोडा 1972 से 1992 के बीच कुल 36 महीनों में तैयार हुआ | सफ़ेद रंग में बना हुआ यह शांति मन्दिर दार्जीलिंग के जलपहाड़ पर स्थित है जिसकी ऊँचाई 94 फिट है | ऊँचे पाइन के पेड़ों के बीच से होते हुए एक ऊंचा नीचा रस्ता जहाँ रुक जाता है वहाँ सामने दिखता है विशाल श्वेत शांति मन्दिर यानि पीस पगोडा | उसके बाद हमारा अगला स्थान था पद्मजा नायडू हिमालयन जैविक उद्यान या इसे सामान्य तौर पर यहाँ के नागरिक जू ही कहते हैं | पुराने बाज़ार से कुछ दूरी पर स्थित यह प्राणीघर पद्मजा नायडू माउंटेनियरिंग संस्थान के बायीं ओर पर है | इस जू में हिमालयन जंगलों में पाए जाने वाला लाल पांडा और बर्फीला तेंदुआ देखने को मिला | जंगल बुक वाला बघीरा और एवेंजर वाला वुल्फ भी देखा | पहाड़ों के ऊंचे नीचे रास्तों पर अनुकूल वातावरण में सभी जानवर अपने बाड़े में मौसम का मज़ा लेते दिखाई दे रहे थे | तभी अचानक एक बाड़े के आगे काफी भीड़ जमा थी और लोग हल्ला कर रहे थे | वहां मौजूद कर्मचारी उन्हें बार बार शांत रहने का इशारा कर रहे थे| कौतुहल में मैं भी उस बाड़े की तरह बढ़ी| देखा एक भीषण विशालाकार बाघ बड़े शान से पूरे बाड़े का निरिस्क्षण कर रहा था | लखनऊ के प्राणी उद्यान में भी बाघ देखा है पर यह तो कुछ अधिक ही बड़ा और बलशाली नजर आ रहा था | उसके नामपट्ट में लिखा था रॉयल बंगाल टाइगर | वैसे इस जू में साइबेरियन बाघ और तिब्बतियन भेड़िया भी देखने को मिलता है | आपको बता दें कि यहाँ पर शोर मचाने की मनाही है और आपको ऐसा करने पर भारी जुर्माना भरना पड़ सकता है| जानवरों की बस्तियाँ उजाड़ कर हमने अपने बसेरे बनाये हैं तो कमस्कम जहाँ उन्हें पनाह मिली है वहां तो वो शांति से रह पायें |
हमारा अगला पड़ाव था तेनजिंग रॉक | वही चट्टान जहाँ तेनजिंग शेरपा में एवेरस्ट फ़तेह करने से पहले अभ्यास किया था | बारिश अचानक से आ गयी थी तो हमें पुराने बाज़ार से छतरी खरीदनी पड़ी | और फिर वही रात की तरह बादलों का आना जाना लगा रहा | अब मैं बादलों को छू सकती थी | मैं उन्ही के बीच में थी , वो मेरे इर्द गिर्द और मैं उन्ही में ही सांस ले रही थी| ऐसा लग रहा था कि बादलों से रोमांस हो रहा है | उधर कुछ दूरी पर रोपवे भी था | मन किया की आज इसपर भी बैठूं पर वहां तो जनाब दो घंटे से लाइन लगी हुई थी | सो मैं मन मारकर वापस आगयी | वैसे भी इतना घुमने में ही हमारी घड़ी दो बजा चुकी थी | एक छोटे से ढाबे में दाल रोटी खाकर हम चल पड़े चाय के बागानों की ओर|
दार्जीलिंग दुनिया में अपनी सबसे बेहतरीन काली चाय के लिए मशहूर है | इस इलाके में अंग्रेजों ने चाय के बगान बसाए थे जो आज विश्व की बेहतरीन चाय उत्पादन के लिए जाने जाते है | तो अब हम जा रुके एक छोटी सी झोपडी के सामने जिसमे तीन चार स्थानीय लडकियाँ आँखों में गहरा काजल और होठों पर सुर्ख लाली लगाये आने जाने वाले लोगों को चाय पिला रही थी| हम भारतीय तो वैसे भी चाय के घने शौक़ीन होते हैं पर आपको बता दूं मैंने जीवन में कभी चाय नहीं पी थी | लेकिन उस जगह की महक ही कुछ ऐसी थी की मैं खुद को चाय पीने से रोक न सकी | उस झोपडी के पार नीचे उतर कर देखा तो मीलों दूर तक सिर्फ और सिर्फ चाय के बागान| उस हरियाली के बीच फिर उन्हीं बादलों का आना जाना यूँ लगता था मानो दूर तक किसी ने खुले मैदानों में नीलम बिखेर दिए हों और उस पर रुई की पतली सी परत फैला दी हो | या जैसे ओस की बूंदों से भरी हरी मुलायम घास | और उसपर कहीं बादल तो कहीं बारिश , मालूम पड़ता था हरे रंग के रेशमी दुपट्टे पर चमकीले मुकेश का काम उकेरा गया हो जैसे | मैंने वहाँ के पारम्परिक कपड़े पहन कर फोटो भी खिंचवाई | नज़ारे इतने खुशनुमा थे कि वहां से जाने का दिल ही नहीं हो रहा था | कमाल की कारीगरी है उपर वाले की ! कुछ देर वहां रुक कर हम उपर वापस आये और उन कजरारी आँखों वाली लड़कियों से घर ले जाने के लिए थोड़ी चाय खरीदी | और यूँ थक कर चल दिए वापस अपने होटल की ओर| शाम को हमारा विचार था की हम लोकल मार्किट की सैर करेंगे, मोमोज खायेंगे और इनके एक मित्र वहीँ जलपहाड़ पर है तो हमें उनसे मिलने भी जाना था |
बादल यूँ तो बड़े सुंदर लग रहे थे पर उनके आने जाने के कारण हम टाइगर हिल न जा सके | टाइगर हिल वो चोटी है जहाँ से सूर्योदय के समय साफ मौसम होने पर सामने कंचनजंगा की बर्फीली चोटियाँ दिखती हैं | और सफ़ेद पहाड़ों पर उगते सूरज की रौशनी यूँ लगती है जैसे ताज़े बने कलाकंद पर किसी ने सोने का वरक चढ़ा दिया हो |
दूसरा दिन: दार्जीलिंग से गंगटोक
समय ज़रा कम था और उसी बीच में हमें काफी जगहें घूमनी थी इसलिए हम अगले दिन निकल पड़े गंगटोक की ओर| परिणीता फिल्म देखी होगी आपने उसमे एक बड़ा प्यारा दृश्य है जिसमे एक टॉय ट्रेन है और कुछ बच्चे उस पर गाना गा रहे हैं | आप सोचते होंगे की दार्जीलिंग की बात हुई और मैंने टॉय ट्रेन का ज़िक्र नहीं किया | दरसल टॉय ट्रेन के लिए एक दिन पहले से बुकिंग करवानी पड़ती है और हमारा ठहराव ही वह एक दिन का था इसिलए टॉय ट्रेन में बैठने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ | पर आपको बता दें की ये हिमालयन टॉय ट्रेन भारत की एकमात्र डीजल से चलने वाली ट्रेन है और इतनी ऊँचाई पर इतने खूबसूरत रास्तों में चलने की वजह से इसे यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज साईट भी घोषित किया गया है |
तो फ़िलहाल गंगटोक जाने के रास्ते में हमें बतासिया लूप होते हुए जाना था| इसका निर्माण आजादी से पहले स्वतंत्रता संघर्ष और विभिन्न लड़ाइयों में मारे गए लोगों को श्रद्धांजली देने के लिए किया गया है। इसके अलावा यहां पर टॉय ट्रेन हेयरपिन टर्न लेती है। यहां से कंचनजंघा पर्वत श्रृंखला का बेहद खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है।
अब बारी थी गंगटोक की | यूँही टॉय ट्रेन के साथ साथ अगल बगल चलते हुए हम निकल आये गंगटोक जाने वाले रास्ते पर | टेढ़े मेढे संकरे चौड़े ऊंचे नीचे रास्ते शहर से होते हुए आ पहुंचे खुली पहाड़ियों की ओर| कहीं हल्के तो कहीं गहरे हरे रंग के पेड़ | अब मौसम में सर्दी कम होने लगी थी | वहां तक का रास्ता लगभग साढ़े तीन घंटे का था तो बैठे बैठे नींद आने लगी |मालूम नहीं कब आँख लगी और कब खुली | खिड़की से झांक कर देखा तो पहाड़ों के बीच से पतली सी नदी बह रही थी | क्या खूब लगती थी जैसे कोई चांदनी गोटा | मैं उसे देखती रही | कभी चौड़ी तो कभी संकरी, कभी तेज़ तो कहीं मद्धम, कहीं मुलायम तो कहीं पथरीली कैसे कैसे न जाने वो करवट लेने लगी | किसी खूबसूरत नायिका की गोरी कमर जैसी ऊंची नीची बढती घटती | कई मोड़ मुड़ती और मेरे साथ ही न जाने किस ओर बढती जा रही थी तीस्ता | हाँ वो तीस्ता थी | सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवन रेखा तीस्ता | इसका उद्गम चोलामु सरोवर से हुआ है जो सिक्किम में 23,189 फिट पर है | नदी का रंग तो देखो कभी हरा तो कभी नीला | इतनी चंचलता थी मानो विलियम वर्ड्सवर्थ की लूसी ग्रे हो | कहीं इधर इठलाती कहीं उधर मचलती बस आगे बढती जा रही थी | कुछ लोग कई जगहों पर रिवर राफटिंग कर रहे थे | दोपहर का डेढ़ बज रहा था भूख लग आई थी और कोई रेस्तरां नहीं दिखता था | तीस्ता के किनारे पर ही एक छोटी सी दुकान में रुक कर खाना खाया | खाने में चूल्हे की रोटी , धूलि मसूर की दाल और कोई पहाड़ी साग था जो आलू के साथ पकाया था | भूख लगी हो तो सादा खाना भी पकवान सा लगता है | और उसपर जब ये नज़ारे हों तो क्या ही कहने | इन दो दिनों में अबतक मैं जीतने भी लोगों से मिली सब बड़े ही सरल और ज़मीनी थे | दुकानों या किसी पर्यटन स्थल पर किसी भी तरह की कोई लूट नहीं थी अमूमन जैसे दिल्ली वगैरह में होती है | दो सौ बीस रूपये में जी भर के घरेलू खाना खाया और फिर आगे की और निकल पड़े | अभी भी गंगटोक पहुँचने में करीब सवा घंटा बाकी था | उपर आसमान और बगल में तीस्ता इन्ही को निहारते, मन में हजारों विचारों का सैलाब लिए सवा तीन बजे हम पहुंचे गंगटोक की एक ऐसी पहाड़ी पर जहाँ अबसे आगे के दो चार दिन हमे रुकना था | जगह थी तादोंग जो पूर्वी सिक्किम में आती है और गंगटोक का ही हिस्सा है | एक ऊंची पहाड़ी पर बना गेस्ट हाउस और सामने की तरफ हरियाली और बादलों की आवाजाही के बीच दीखते पहाड़| सामने वाला पहाड़ कुछ ऊँचा था, उसके बगल वाला थोडा और ऊँचा और उसके बाद कुछ और भी ऊंचा | बादलों के उपर थे हम | उस जगह मैं बहुत टहलती रही | हर तरफ जन्नत सा नज़ारा |
रात घिरने लगी थी और जुगनू यूँही चमक उठे | खाना खाने के बाद फिर उसी जगह पर हम घूमते रहे |एकदम शांत मन से, मन में कोई कोलाहल नहीं था | हमदोनो भी एक दुसरे से कोई बात नहीं कर रहे थे | शायद शब्दों से मैं उस जगह की खूबसूरती को बंधना नहीं चाह रही थी | यूँही नज़ारे निहारते हुए वक़्त का अंदाज़ा ही नहीं हुआ |फिर वहीँ चुपचाप बैठे अपनी डायरी उठाई और कुछ यूँ लिखा ,” हिमालय की तलहटी की ओर गंगटोक में एक खामोश से गांव में हूँ। समुद्रतल से 5,410 फिट ऊंचाई पर बसे इस गांव में आबादी ज़रा कम है इसीलिए आवाजाही और यातायात का शोर भी नहीं है। रात का दूसरा पहर शुरू होने ही वाला है और शायद ये लिखते लिखते हो भी जाये। जबतब बादलों का आना जाना बना हुआ है या यूं कहें कि उन्ही का घर है इंसानों ने घुसपैठ बना ली है। अभी खाना खाने के बाद ज़रा टहलने निकली तो लगा बारिश सी हो रही है लेकिन वो बादलों के फाहे थे जो हमसे टकरा कर पिघल रहे थे।
बहुत खूबसूरत नजारा है। खिड़की से बाहर बादलों ने घेराबंदी कर दी है। सनराइज़ देखने का मन था पर इस घेराबंदी को तोड़ पाना मुश्किल है। साँस लेने से ही मन खुश हुआ जा रहा है। हवा इतनी साफ है पर फिर याद आ जाता है कि नीचे जाकर वही डीज़ल सूंघना पड़ेगा। हरे पहाड़ों के बीच लुका छुपी करते रेशम से मुलायम और बर्फ से सफेद बुढ़िया के बाल के गुच्छों जैसे बादल और दूर कहीं चहकते पंछी। सर पर खुला आसमान औऱ पांव तले नर्म ओस। ये 1968 में बनी फ़िल्म अभिलाषा जैसा दिखता है या कभी 1958 की मधुमती जैसा। ऐसा जिसे देखकर धर्मेन्द्र पर फिल्माया आज मौसम बड़ा बेईमान है गीत याद आ जाये। रोहित शेट्टी और करन जौहर की फिल्मों जैसी आज की फिल्में उस खूबसूरती का अक्स किसी भी कैनवास पर एच डी में भी नहीं उकेर पाएंगी। ये पूरा नज़ारा ग़ालिब की शायरी जैसा लगता है। ये तो बस इश्क़ है। क़ाश के सभी को ये हो जाये|”
सैर गंगटोक की
सिक्किम की राजधानी और इस प्रदेश का सबसे बड़ा शहर है गंगटोक | इसे गान्तोक भी कहते हैं जो पूर्वी हिमालय पर्वत माला पर शिवालिक पहाड़ियों के ऊपर 1437 मीटर की ऊंचाई स्थित है| एक बहुत आकर्षक शहर है जो रानीपूल नदी के पश्चिम ओर बसा है। कंचनजंघा शिखर की संपूर्ण श्रृंखला की सुन्दरता यहाँ से देखते बनती है । गंगटोक के प्राचीन मंदिर, महल और मठ बिलकुल सपनों की दुनिया सा है । सुबह का नाश्ता पानी करके हम निकल पड़े गंगटोक की स्थानीय जगहों का दर्शन करने | ये जगह तमाम तरह के आर्किड फूलों के लिए मशहूर है | सिक्किम में हर वर्ष फूलों की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी लगती है | इसके इलावा यहाँ साल भर कई तरह की पुष्प प्रदर्शनी लगी रहती हैं | यहाँ कुल 454 किस्मों की ओर्चिड्स पाए जाते हैं | हर दो कदम पर आपको बेहतरीन साफ़ पानी के पहाड़ी झरने देखने को मिलेंगे | इन झरनों पर कई तरह के एडवेंचर स्पोर्ट्स भी करवाए जाते हैं | दर्शनीय स्थलों में आपको लुभायेंगे फ्लावर शो संग्रहालय, हनुमान टोक, गणेश टोक, दो-ड्रल चोर्टन स्तूप, नम्नंग व्यू पॉइंट ,सेवेन सिस्टर वॉटरफॉल, त्सोम्गो लेक , रूमटेक मोनेस्ट्री आदि | एम् जी रोड पर यहाँ का स्थनीय मार्किट लगता है जहाँ आप शौक से यहाँ के लज़ीज़ कुजीन मोमोज और ठुपका का जयका ले सकते हैं | चाय चुन और दार्जिलिंग सेलेक्ट जैसे मशहूर चाय की दुकानें हैं जहाँ विश्व प्रसिद्ध दार्जीलिंग की चाय तमाम सारे अलग अलग फ्लेवर्स में उपलब्ध हैं | यहाँ की स्थानीय वेशभूषा जिसे हम कीमोनो के नाम से जानते हैं, इसी बाज़ार में वाजिब दामों पर उपलब्ध है |दिन भर घूमते घामते हम शाम तक वापस पहुंचे अपने कूचे में और फिर वही खूबसूरत नज़ारा मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत कर रहा था |
अगले दिन हम निकले नामची की ओर | दक्षिण सिक्किम में बसा हुआ, सिक्किम के दक्षिण जिले का जिला मुख्यालय होने के बावजूद नामची एक छोटा सा शहर है।नामची का अर्थ है नमस्ते |हमारे लिए नामची के दौरे का सबसे बड़ा आकर्षण यहां की सोलोफोक पहाड़ी पर स्थित चारधाम या सिद्धेश्वर धाम था। महाकाव्य महाभारत में एक ऐसा अध्याय है जहां पर अर्जुन शिव भगवान से पशुपतिअस्त्र प्राप्त करने के लिए कड़ी तपस्या करते हैं। जब शिवजी उनके समर्पित धीरज से प्रसन्न हुए, तो उन्होंने अर्जुन के समुख प्रकट होकर उन्हें पशुपतिअस्त्र का वरदान दे दिया। कहा जाता है कि यह प्रकरण नामची की सोलोफोक पहाड़ी पर घटित हुआ था। अर्जुन को पशुपतिअस्त्र का आशीर्वाद देने के लिए इस पहाड़ी पर शिव भगवान के अवतरण की खुशी मनाने के प्रतीक स्वरूप चारधाम का परिसर बनवाया गया था। इस परिसर का उद्घाटन नवंबर 2011 में श्री जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती महाराज और अनेकों धार्मिक गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में प्राण प्रतिष्ठान के साथ हुआ।नामची के चारधाम परिसर का केंद्रीय आकर्षण 87 फीट ऊँची शिव मूर्ति है जो पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। यहां से शिव भगवान पूरे चारधाम परिसर और उसके चारों ओर की घाटियों की निगरानी करते हैं। यह मूर्ति पहाड़ी के पश्चिमी छोर पर पूर्वी दिशा की ओर मुख किए स्थित है। यह मूर्ति 12 ज्योतिर्लिंगों से घिरी है।यह 12 प्रसिद्ध शिव मंदिर पूरे भारत के धार्मिक भूगोल पर फैले हैं। यहां का हर एक शिवलिंग अपने मूल जगह पर स्थापित शिवलिंग की सटीक प्रतिकृति है।
नामची शहर विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के लिए भी प्रसिद्ध है |7,057 फिट की ऊंचाई पर 135 फिट ऊँची गुरु पद्मनाभस्वामी जिन्हें गुरु रिम्पोचे के नाम से भी जानते हैं , उनकी प्रतिमा बनी है |*ऐसा माना जाता है कि मंडी के राजा अर्शधर को जब यह पता चला कि उनकी पुत्री ने गुरु पद्मसंभव से शिक्षा ली है तो उसने गुरु पद्मसंभव को आग में जला देने का आदेश दिया, क्योंकि उस समय बौद्ध धर्म अधिक प्रचलित नहीं था और इसे शंका की दृष्टि से देखा जाता था। बहुत बड़ी चिता बनाई गई जो सात दिन तक जलती रही। इससे वहाँ एक झील बन गई जिसमें से एक कमल के फूल में से गुरु पद्मसंभव एक षोडशवर्षीय किशोर के रूप में प्रकट हुए।यह झील आज के रिवालसर शहर में है जो हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में स्थित है।(*स्त्रोत: इन्टरनेट)
एक सलाम देश के नाम : नाथुला पास
सैर कर दुनिया की ग़ाफिल जिंदगानी फिर कहाँ , जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ | समुद्रतल से 14,410 फिट की ऊँचाई पर स्थित है भारत चीन सीमा का पुराना सिल्क रूट के नाम से जाना जाने वाला नाथुला पास|नाथु का अर्थ है सुनने वाले कान और ला का अर्थ है दर्रा | बारहों महीने बर्फ से ढंका रहने वाला ये नाथुला पास भारत के पड़ोसी देशों की सीमा में सबसे करीबी सीमा है | यह सीमा भारत को तिब्बत और चीन से जोडती है जिसे 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था पर 2006 में इसे वापस इसे तमाम व्यापार के लिए खोल दिया गया | घनघोर बादलों और झरनों के बीच में से होता हुआ एक रास्ता गान्तोक से 38 मील दूर ऊपर जाता है नाथुला की ओर| और नाथुला पहुँचने से पहले पडती है त्सोम्गो झील | 12,313 फिट की ऊँचाई पर बनी इसी प्राकृतिक झील में हिमालय के ग्लेशियर के पानी आता है | ये झील जाड़े के मौसम में जम जाती है | बुद्धिस्ट गुरु ये मानते हैं की ये झील समय समय पर रंग बदलती रहती है | जिन रास्तों से हम आये थे उसमे हर कदम पर मिलने वाले झरनों का स्त्रोत मुख्यतः यही झील है|
यहीं से कुछ आगे बढने पर हमे मिला बाबा हरभजन सिंह का मन्दिर |इन्हें नाथुला का हीरो कहा जाता है | ऐसा माना जाता है की शहीद होने के बाद भी आजतक इनकी आत्मा पूर्वी हिमालय पर देश की सीमा की रक्षा करती है | 1968 में बाबा के शहीद होने की बात कही गयी है | भारत और चीन में होने वाली बॉर्डर पर्सनल मीटिंग में आज तक बाबा हरभजन सिंह के लिए एक कुर्सी हमेशा खाली रखी जाती है | एक सैनिक ने बातचीत के दौरान बताया की कुछ महीनों पहले डोक्लाम पर हुई हलचल के बारे में भी उन्होंने सेना को पहले चेता दिया था | बाबा जी का पुराना मन्दिर वर्तमान मन्दिर के 9 किलोमीटर ऊपर है जहाँ का रास्ता बड़ा संकरा है| बढ़ते पर्यटन को नजर में रखते हुए एक खुली जगह पर 13000 फिट पर बनाया गया है |
वहीँ आगे 13,025 फिट पर है दुनिया का सबसे ऊंचा गोल्फ कोर्स | इसे याक गोल्फ कोर्स के नाम से भी जानते हैं | सारागढ़ी कप और कलिम्पोंग कप नामक प्रसिद्ध टूर्नामेंट यहाँ होते हैं |जनवरी से अप्रैल तक बर्फ से ढंके होने के कारण ये स्कीईंग ग्राउंड भी बन जाता है | हमें भी विश्व के सबसे ऊँचे गोल्फ ग्राउंड में गोल्फ खेलने का मौका मिला | पास में ही एक बड़ी खूबसूरत सी झील है जिसे याक झील भी कहते हैं | यहाँ बोटिंग की सुविधा थी | लगभग 14हज़ार फिट की ऊँचाई पर बर्फीले सफेद पहाड़ियों से घिरे हुए छोटे से तिब्बती गाँव में झील में नौका विहार करने का जो आनंद है वो शब्दों की सीमा से परे है |
यहाँ पर आगे कुछ और ऊंचाई पर बना है वाटर शेड मेमोरियल और संग्रहालय जहाँ इसी सीमा पर शहीद हुए सैनिकों की वर्दियां , उनकी तस्वीरें और उनके कई सारे सामान | ये सब कुछ ऐसी चीज़े थीं जो देश और सेना के लिए हमारी इज्जत और हमारे प्रेम को कुछ नहीं तो हज़ार गुना बढ़ा देतें हैं |ऐसी देशभक्ति जिसका बयान शब्दों में तो नहीं हो सकता |देश प्रेम का जो नमूना हम वहां देख कर आये उसकी तस्वीर बना पाना एक बहुत असम्भव सा काम है | -2डिग्री तापमान में जब हमारे दांत तक कड़कड़ा रहे थे लग रहा था मानो रूह तक जम जाएगी , साँस लेना मुश्किल हो रहा था वहाँ सर्दियों में तापमान – 30 डिग्री तक जाता है | जीवन शून्य सा हो जाता है | सफ़ेद रंग शांति देता है लेकिन हर समय सफ़ेद रंग देख देख कर जीवन रंग हीन सा लगने लगता है | जब साँसे जमने लगती हैं नब्ज़े थमने लगती हैं तब भी देश के सैनिक इसलिए वहां डटे रहते हैं ताकि हम चैन से रह पायें | इतनी ऊँचाई पर जहाँ ज़रूरत का सब सामान नीचे से जाता है और किसी न किसी वजह से अगर सप्लाई न हो पाए तो जनजीवन ठप होने लगता है | इतनी मुश्किलात में वो वहां सिर्फ हमारी रक्षा के लिए दिन रात खड़े रहते हैं | एक सैनिक से बातचीत करते हुए मालूम हुआ कि सर्दियों में बर्फ इतनी मुसीबत नहीं देती, कठिन होता है बर्फीली तेज़ हवाओं में खुद को बचा पाना| उसने बताया की ये लकड़ी और लोहे के बने कैंप और बंकर तेज़ हवाओं की वजह से जोर जोर से हिलने लगते हैं |कई मर्तबा तो कैंप के अंदर सोये हुए लोगों की कम्बल तक पर बर्फ जमी होती है | सैनिकों का खून अचानक से जमने लगता है | यहाँ की सर्दियां जानलेवा हो जाती हैं |
हमारे मोबाइल में सिग्नल जीरो था पर मोबाइल की घड़ी चाइना का टाइम जोन पकड़ने लगी थी | उसमे साढ़े तीन बज रहा था | हमें लगा बहुत देर हो गयी है नीचे उतरने में दिक्कत हो जाएगी | फिर हाथ घड़ी देखी तो मालूम पड़ा की समय अभी एक बजकर बीस मिनट हुआ था | कुछ जान में जान आई | सेना के लोग बार बार चाय और काहवा पिला रहे थे ताकि हम सर्दी से बचे रहें | एक प्लेट में कुछ मठरी लेकर आये , स्वाद तो मानिए ऐसे बेहतरीन कि बड़े से बड़ा हलवाई फेल हो जाये | कुछ आर्मी वाले जानने वाले थे जिन्होंने वहां लाजवाब भोजन करवाया | खाने के दौरान कई सारी बातें हुई | मालूम हुआ कि इस बार 17वीं लोकसभा में इलेक्ट्रॉनिक बैलट पेपर के ज़रिये सेना ने भी अपना वोट दिया| और भी कई सारी बातें साझा हुई जो हम लोगों के लिए कहानियाँ बन गयी है जैसे कि किस किस तरह से वहां पर काम होता है , सारागढ़ीनाम का पोस्ट कैसे बना और कैसे सियाचीन की सर्द ज़मीन पर युद्ध हुआ | ये वो कहानियाँ थी जिन्हें उन लोगों ने जिया था और जिन्होंने हमारे रोंगटे खड़े कर दिए थे |
लौटने का समय हो चला था | मौसम ख़राब भी होने लगा था सो और नहीं रुक सकते थे | बड़ा भारी मन हो रहा था | वहां पर उनलोगों को छोड़ कर आने का मन ही नहीं था | काश अपने बस में होता तो सभी को अपने साथ ले आते | वो सब भी कितने लम्बे समय से अपने घरवालों से नहीं मिले| उनका परिवार, उनका शहर , उनका गाँव, उनके लोग सब गलियाँ सब उनका रस्ता देखते रहते होंगे जिनका मालूम नहीं की वो वापस आयेंगे भी या नहीं | उन्होंने हमें रिटर्न गिफ्ट में हमारी तस्वीर दी जो इंडिया चाइना मीटिंग रूम के सामने खिंची गयी थी | उसमे एक संदेश लिखा था ,” जब आप अपने घर वापस जाना तो अपने घरवालों को हमारे बारे में बताना और कहना कि उनके भविष्य के लिए हम अपना आज कुर्बान कर रहे हैं |”
आँखों में आंसू भरे और मन से उनको लाखों शुभकामनायें देते, हमारी रक्षा करने के लिए उनको हजारों धन्यवाद देते हुए हम वहां से उतरने लगे | आँखों के सामने और मन पर दोनों जगह सिर्फ कोहरा था | ऐसे हालात और इतनी कठिन तपस्या देखकर मन बुझ सा गया था | हम बहुत देर शांत रहे | रास्ता उतना ही खूबसूरत था पर अब वो महसूस नहीं हो रहा था | मन में एक वादा था खुद से कि वापस फिर आयेंगे ज़रूर |काश कि ऐसी सारी सीमायें खत्म हो जाये और सब अपने घर परिवारों के साथ ख़ुशी से रह पायें | काश कि हम जब अगली बार आयें तो उन्हें लेकर ही वापस जाएँ |
शाम तक हम वापस गंगटोक पहुँच चुके थे | सब कुछ आँखों में एक सपने जैसा बस चुका था | कुछ बात है जो कश्मीर के लिए कही गयी है वो मैं अभी भी कहना चाहूंगी ,” गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त”|
आँचल प्रवीण
(इस ब्लॉग से सम्बन्धित सभी चित्रों को लेने और संकलन करने का श्रेय विशाल श्रीवास्तव को जाता है जो नेटवर्क की खराबी के कारण अपलोड नहीं हो पा रहीं हैं। )