Wednesday, 15 April 2015

मैंने जीवन के कई पतझड़ देखें हैं |


लोग कहते हैं फलां ने इतने वसंत देखे, इन्होने इतने , उन्होंने उतने और मैंने भी न जाने कितने | पर आज जब काम पर जा रही थी तो गिरते हुए पत्ते और तेज़ी से उडती धुल को देख कर मन में सहसा सवाल आया की भई कोई ये क्यों नहीं कहता के मैंने इतने पतझड़ देखें हैं | क्यों भई इतनी क्या नाराज़गी पतझड़ से | अब जब पुराने पत्ते झडेंगे तभी तो नई कोपलें खिलेंगी | तो इनडायरेक्टली सारा क्रेडिट तो पतझड़ का ही हुआ |

हुआ यूँ की मैं अपने दो पहिये के हेलीकाप्टर से अपने कार्यस्थल पर जा रही थी | जहाँ पर सड़कों में जाम वगैरह लगा था वहां तो कोई खास एहसास नहीं हुआ पर जहाँ ग्रीन बेल्ट थी और सन्नाटी सड़क वहां पर पत्तों का गिरना कई पुरानी यादों को ताज़ा का गया | स्कूल जाने के दिनों में यह पतझड़ जो हैं वो और हमारे इम्तेहान दोनों लगभग साथ ही आते थे | सूखे सूखे दिन , तेज़ धूप, बर्फीली हवा , मैदान में बिखरे हरे पीले पत्ते और दिमाग में पढाई की टेंशन | बड़े अजीब से दिन हुआ करते थे , कुछ ऐसे मानो की किसी प्रेमी को अपनी प्रेमिका से कोई धोखा मिला हो और वो सड़कों पर दर बदर अपने आंसू और दुःख समेटे घूम रहा हो | वीरान तनहा सड़कों पर | हाँ किसी विषय का पेपर बिगड़ जाने पर हमारे भी कुछ यही हाल होते थे | तो मेरे लिए यह मौसम दिल टूटने वाला टाइप का हो जाता था | मौसम ही कुछ ऐसा होता है यह शायद | जबसे मैंने जाना है तबसे इस मौसम में अपने आस पास लोगो को रिश्तों से उलझते ही देखा है | न जाने क्यों ? कभी दोस्ती में अनबन कभी रिश्तों में बैर | या शायद दिल इन गिरते पत्तों को अपने टूटते रिश्तों से जोड़ लेता है जो वापस कभी उस तरह से नहीं जुड़ते | गौर फरमाएं तो हमारी फिल्मे भी इस अजीब उलझन को गिरते पत्तों और टूटी शाखों के माध्यम से ही फिल्माती हैं | “ वो शाख गिरा दो , मेरा वो सामान लौटा दो “  गुलज़ार का गीत भी एक दुःख भरे एहसास को दर्शाता है | पर फिर वही बात की पतझड़ का शोक मनाने में हम अपने जीवन में आने वाले वसंत का स्वागत करना भूल जाते हैं |हम हमेशा दुःख के पीछे भागते है | क्यों ? जीवन ने हमे और आपको बहुत ही बहुमूल्य चीजें और रिश्तों से नवाज़ा है लेकिन जरा ध्यान दीजिये की आप और हम और बाकी सब भी उसके पीछे रोते हैं जो हमे नहीं मिला |

एक और वाकया आपसे बाटती हूँ | देखिये की किसी मैगज़ीन में अगर एक ख़ुशी की कहानी या लेख हो और एक दुःख भरा लेख हो और दोनों में ही भाव बराबर की मात्रा में हों तब भी हम स्वयं को उस दुःख भरी घटना से अधिक जुड़ा हुआ महसूस करते हैं | कभी गौर से सोचें तो इसका उत्तर यही है की हम हमेशा अपने आसपास दुःख और पीड़ा को ही ढूंढते हैं | हमेशा खुश होने के लिए दुःख का इंतजार करते हैं | मेरे पास ये नहीं , मेरे पास वो नहीं , मुझे ये नहीं मिला , मुझे वो नहीं मिला , मेरी यह चीज़ खो गयी , मेरी मेहनत को परिणाम नहीं मिला, उसने मुझे ये कहा , वो कहा , मैंने ऐसा किया पर ऐसा न हुआ और न जाने क्या क्या | क्या यह सब दुःख के पीछे रेस लगाना नहीं है ? क्या यह असंतोष नहीं है ? क्या यह स्वयं को मौजूदा खुशियों से परे रखना नहीं है ?और क्या यह झड़ते हुए पत्तों पर शोक मनाना नहीं है ?

झड़ते बालों पर जरुर शोक मनाइए पर झड़ते पत्तों पर नहीं | यह प्रकृति का नियम है | हर रात की सुबह निश्चित है | इसलिए भई हम तो अपने जीवन के वसंत नहीं पतझड़ काउंट करते हैं | आप भी कीजिये और मुस्कुराते रहिये | 

Wednesday, 8 April 2015

चित्रकूट धाम : यात्रा वृतांत

|| चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक धरें रघुबीर ||
कहतें हैं श्री राम ने अपने चौदह वर्षों के वनवास में से साढ़े ग्यारह वर्षों तक चित्रकूट में निवास किया था | चित्रकूट का भारतीय धर्म एवं दर्शन में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है | सती अनुसूया जो सप्त ऋषि मंडल के ऋषि अत्रि की पत्नी हैं उन्होंने भी यहीं ध्यान लगाया था | चित्रकूट शब्द दो शब्दों के मेल से बना है; चित्र जिसका संस्कृत में अर्थ है अशोक और कूट जिसका अर्थ है शिखर या चोटी | इसका मतलब यह हुआ की इस स्थान पर अशोक के वृक्ष बहुतायत में पाए जाते थे इसलिए इस स्थल का नाम चित्रकूट पड़ा | तुलसीदास रचित श्री राम चरित मानस की रचना भी यहाँ से कुछ दूर राजापुर नाम के स्थान पर हुई है जहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म और जीवन यापन हुआ था |


सौभग्य से पिछले सप्ताह हुई छुट्टियों में हमें सपरिवार चित्रकूट धाम जाने का अवसर प्राप्त हुआ | उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित यह जगह विन्ध्यपर्वत श्रेणी में आती है जिसका विस्तार उत्तर और मध्य प्रदेश में है | इसकी श्रृंखलाओं में कामदगिरी पर्वत , हनुमान धारा , जानकी कुण्ड, लक्ष्मण पहाड़ी आदि आते हैं | यूँ तो चित्रकूट पहुँचने का सीधा रेल मार्ग है जो 8 किलोमीटर दूरी पर स्थित कर्वी रेलवे स्टेशन पर ले जाता है किन्तु हम लोगो ने सड़क मार्ग से जाने का निश्चय किया और अपनी गाड़ी से कानपुर से होते हुए बाँदा के रस्ते हम सब चित्रकूट पहुंचे | यह हालाँकि अप्रैल है लेकिन समतल, पठारी और निचली पहाड़ियों के इलाकों में इन दिनों गर्मी की प्रचंडता प्रारंभ हो जाती है | पर जब घूमने का जूनून हो तो यह सब कठिनाईयां शब्द मात्र लगते हैं | चित्रकूट पहुँच कर हम लोगों ने कुछ विश्राम करने के बाद शाम को राम घाट जाने का प्लान बनाया |
आपको बता दे की राम घाट मन्दाकिनी नदी के तट पर बना हुआ वह घाट है जहाँ वनवास के समय पर प्रभु राम सीता माता और लक्ष्मण जी के साथ केवट की नाव से प्रयाग से आये थे | केवट ने उन्हें गंगा पर करने से पूर्व अपने समस्त पूर्वजों को प्रभु द्वारा मोक्ष दिला दिया था | यहाँ घाट पर पहुँच कर प्रभु राम ने शिवजी की पूजा की | आज वहां बहुत प्राचीन और विशाल मन्दिर है | हमने राम घाट पर नौका विहार किया | मन्दाकिनी नदी का जल मंद गति से बहता है | घाट पर जल की गहरायी कहीं १० , १५ और २० फुट तक है | गौधूली के समय यहाँ गंगा आरती का दृश्य बहुत ही मनोरम होता है | यहीं पर भगवन राम की वनवासी छवि का मंदिर है जिसकी रक्षा एक विशालकायी हनुमान जी की मूर्ती करति है |           शाम को नौका विहार और आरती के बाद कामदगिरी पर्वत की परिक्रमा करने की योजना बनी | कामदगिरी पर्वत के मुख्य देव हैं कामता नाथ | इनके दर्शन और पर्वत की परिक्रमा को सभी मनोकामनाओं का पूरक माना जाता है | पर्वत के चरों ओर साढ़े पांच किलोमीटर के परिक्रमा मार्ग में कई मंदिर बने हुए है | साढ़े ग्यारह वर्षो के लम्बे समय सह अनुज व् पत्नी संग श्री राम के यहाँ निवास के कारण चित्रकूट धाम की भूमि को हर पग पर पावन माना गया है | मार्ग के किनारे-किनारे राम मुहल्ला, मुखारबिंद, साक्षी गोपाल, भरत-मिलाप आदि कई देवालय बने हुए हैं। इसकी दक्षिणी दिशा में  एक छोटी पहाड़ी पर लक्ष्मणजी का एक मंदिर भी है। कहा जाता है कि वनवास में लक्ष्मण जी यहीं रहा करते थे। परिक्रमा मार्ग में ही भरत मिलाप मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि यहीं भरत भगवान श्री राम से मिलने आए थे। यहीं पर जानकी कुण्ड भी स्थित है जहाँ माता सीता स्नान किया करती थी | यह सब देकते देखते काफी समय बीत गया और थकान के कारण हमने भोजन करके आराम करने का निश्चय किया |
अगले दिन की हमारी शुरुआत हुई गुप्त गोदावरी से | राम घाट से कुछ सत्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुप्त गोदावरी एक पर्वत श्रुंखला में बसी हुई दो गुफाएं हैं जहाँ माना जाता है की श्री राम अपना दरबार लगाते थे | पहली गुफा ऊंची , चौड़ी और छोटी है जिसमे एक और सीता कुण्ड है | यहाँ पर एक दन्त कथा मशहूर है की सीता जी के स्नान करने के दौरान खटखटा चोर ने उनके वस्त्र चुरा लिए थे तो लक्ष्मण जी ने उसे तीर से ऊपर टांग दिया था | आज भी उस स्थान पर एक तीर नुमा पत्थर लटका हुआ है | 
  गुफा में जाने का मार्ग बहुत ही संकरा है | अंदर की ओर एक अज्ञात स्थान से जल का स्त्रोत है जिसका आरंभ और अंत किसी को ज्ञात नहीं | इसे गुप्त रूप से गोदावरी का उद्गम मानते हैं | दूसरी गुफा में जाने से पूर्व एक पंचमुखी शिवलिंग है | यह गुफा गहरी लम्बी और संकरी है जो हर समय पानी से भरी रहती है | इसमें भी जल के स्त्रोत का आरंभ और अंत ज्ञात नहीं है | पानी यहाँ टखनों से घुटनों तक की गहरान में है और पानी के अंदर पथरीली ज़मीन है | यहाँ साल भर सैकड़ो लोगों का आवागमन होता है लेकिन पानी एकदम साफ और स्वच्छ है | गुफा इतनी सकरी है की यहाँ एक बार में दो लोग भी नही जा सकते | इसके अंत में राम जी का एक छोटा सा मंदिर है |
हमारा अगला पड़ाव था सती अनुसूया मंदिर | कहते हैं माता अनुसूया ने यहाँ ध्यान लगाया था | इस विषय में एक कथा प्रचलित है | माना जाता था की अत्रि ऋषि की पत्नी माता अनुसूया जैसी पतिव्रता स्त्री सम्पूर्ण ब्रम्हांड में कोई और नहीं है , इस बात पर हमारी त्रिदेवियों को इर्ष्या हुई और उन्होंने तीनो देवों को माता अनुसूया के पति धरम की परीक्षा लेने भेजा | तीनो देव भिक्षुक का भेस बना कर उनके घर पहुंचे और उनसे भिक्षा मांगी | माता ने तुरंत उन्हें भिक्षा देनी चाही तो उन्होंने कहा कि वे भिक्षा तभी ग्रहण करेंगे जब माता निर्वस्त्र होकर उन्हें दान देंगी | माता ने अपने तपोबल से भगवन की लीला समझ ली | वे बोलीं प्रभु मैं आपको निर्वस्त्र होकर भिक्षा दूंगी किन्तु इसके लिए आप तीनों नवजात शिशु बन जाएं | इसपर तीनों देवों ने बालक रूप धारण किया और माता का दूध पिया | तीनो देवियों को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उन्होंने माता से क्षमा मांग कर अखंड सौभग्य का वरदान लिया | यही स्थान सोम ऋषि , दत्तात्रेय ऋषि और दुर्वासा ऋषि का जन्म स्थान है जो तीनों देवों ने धारण किया था | यहाँ भी मन्दाकिनी नदी बहती है |नदी के इस ओर मंदिर और उस और विन्ध्य का घना जंगल है जो लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर पालम की वाइल्डलाइफ संचुरी से मिलता है | घाट पर बंदरों का बोलबाला है |
इसके बाद हम चले स्फटिक शिला की ओर | स्फटिक शिला यहाँ से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक ऐसी जगह है जहाँ प्रभु श्री राम के चरणों के निशान मिलते है | इतने बड़े निशानों को देख कर हम सकते में आ गये जब मालूम हुआ की अजानबाहू श्री राम चौदह फुट के थे | यह वो जगह है जहाँ श्री राम माता सीता का श्रृंगार कर रहे थे जब इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे का भेस बना कर अपनी चोंच से सीता जी के पैर पर प्रहार किया | तब श्री राम ने उस पर तीर चलाया | जयंत तीनो लोकों में गया लेकिन उस तीर ने उसका पीछा न छोड़ा | तब हार मान कर उसने प्रभु और माता से क्षमा मांगी | किन्तु कमान से निकले हुए तीर को वापस लाना असंभव होता है इसलिए प्रभु ने वह तीर जयंत की आँख में मारा जिससे वह काना हो गया | और आजतक यह किवदंती है की कौवों को एक आंख से नही दिखता |
अगले पड़ाव से पहले भूख अपनी चरम सीमा पर थी| हमे अगला सफ़र हनुमान धारा का तय करना था इसलिए हमने वहीं पहुँच कर नीचे एक ढाबे में पूरी सब्जी खायी | “छप्पन भोग का मजा आता है उस दो कौर में जो कठिन परिश्रम पर मिले” | खाना खा कर हम हनुमान धारा की ओर बढे | 650 सीढ़ियों से ऊपर जाकर हनुमान जी का प्राचीन मंदिर है | जब हनुमान जी ने लंका का दहन किया तो उनके शरीर में अग्नि प्रज्वलन के कारण भीषण ऊष्मा थी | इसपर श्री राम ने उन्हें यह ऊंचा और ठंडा स्थान दिया | यहाँ हनुमान जी की मूर्ति पर बांयी भुजा पर पहाड़ के भीतर से फूटा हुआ एक झरना बहता है जिसके आदि और अंत का कोई पता नहीं चला है | 650 सीढियां चटकती हुई धूप में किसी दंड जैसी लग रही थी | सर दर्द से फट रहा था , उबकाई और चक्कर आ रहे थे , घुटनों ने आगे जाने से मना कर दिया और साँसे फूल फूल कर हालत ख़राब हो गयी | लेकिन किसी तरह बैठते चलते हनुमान धारा पहुँच ही गये | वहां से निचे का नज़ारा अप्रतिम था |  मंदिर में बहुत ठंडी हवा आ रही थी और झरने का पानी एकदम निर्मल और स्वच्छ था , पीने में भी मीठा | भई वाह !! मजा आ गया !! तभी मालूम हुआ की ऊपर १०० सीढियों को चढ़कर सीता रसोई है | मैंने तो जाने से मना कर दिया लेकिन सब लोगो का उत्साह देख कर सोचा की भई अब सीता रसोई देखने के लिए कोई वापस तो इतनी ऊपर आएगा नहीं तो जहाँ 650 वहां १०० और | चल दिए भैया अपना झोला उठाये और वह १०० सीढियाँ १५० कब हुई मालूम ही ना चला | पर जब जमीन से 800 फीट ऊपर पहुंचे तो केवल एक ही एहसास हुआ कि,” वी आर टू स्माल टू एग्जिस्ट ऑन अर्थ, बट वी डू “|
अमेजिंग !!!
ऊपर से नज़ारा इतना खूबसूरत था जिसका कोई हिसाब नही | सूरज भी पड़ोस में ही चमक रहा था | जान कर हैरानी हुई की जीवन की पहुँच कहाँ तक है | एक ऐसी पर्वत की चोटी जिसपर एक्के दुक्के पेड़ पौधे दिखते है वहां कुछ दूरी पर एक गाँव बसा था | एक स्कूल था जिसमे पढ़ाने मास्टर नीचे से आते थे और बच्चे पढने भी जाते हैं | यहाँ एसी लगी क्लासेज में भी लोग नही आते हैं |
बेहतरीन!!! यही एक शब्द था यहाँ जिंदगी की जिंदादिली को सलाम करने के लिए !!!वापस उतर कर इतनी थकान हो गयी थी की आगे चला नही गया और हम खाना पीना करके हम सो गये |
अगले दिन हम निकले राजापुर के लिए | राजापुर में कालिंदी के तट पर गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था | जब वे पैदा हुए तो उनके मुह में पूरे ३२ दांत थे और उन्होंने पहला शब्द राम कहा जिससे उनका नाम रामबोला पड़ा | उनके विषय में स्कूल में हम सबने पढ़ा ही है लेकिन हममे से शायद ही कुछ लोग ऐसे हैं जो यह जानते हैं की वाल्मीकि रामायण श्री राम के समय में लिखी गयी थी और तुलसीदास वाल्मीकि के ही अवतार थे जिन्होंने आज से साढ़े पांच सौ साल पहले श्री राम चरित मानस लिखी थी | वहां तुलसीदास जी शिष्य के ग्यारहवें पीढ़ी के पंडितों से मिले जिन्हें हम वास्तव में पंडित कह सकते हैं | ऐसे पंडित जिन्हें धन लोभ नहीं था और ज्ञान के भंडार थे | तमाम छंद चौपाईयां सब उन्हें ज़बानी याद थी और उनका विश्लेष्ण करके हम सबको बता रहे थे | वहीँ गर्भ गृह है जहां तुलसी को उनकी माँ ने जन्म दिया था और सालिग्राम हैं जिनकी वे पूजा किया करते थे | उस मंदिर में स्थापित दोनों मूर्तियाँ मनुष्यों की गढ़ी हुई नहीं है | वे दोनों कालिंदी के गर्भ से प्राप्त हुई थी |  कालिंदी  के उस और है तुलसीदास जी की ससुराल | रत्नावली नाम की एक विदुषी कन्या से उनका विवाह हुआ था और वे उसके प्रेम में इतने मग्न हो गये की उन्हें दुनिया की फ़िक्र ही नही रही | तब रत्नावली की फटकार सुनने के बाद उनके भीतर का भक्ति भाव जागा और अपनी पत्नी को ही गुरु मानकर उन्होंने इतने बड़े ग्रन्थ श्री राम चरित मानस की रचना की |
बगल में ही एक मंदिर है जहाँ तुलसीदास जी द्वारा रचित वास्तविक राम चरित मानस का मात्र एक काण्ड रखा हुआ है | हम सभी यही जानते थे की औरंगजेब ने अपने शासन काल में हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिए सभी हिन्दू ग्रंथो को नष्ट किया था लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है | चित्रकूट और राजापुर ही मात्र ऐसी जगहें हैं जहाँ औरंगजेब ने खुद मंदिर बनवाया था | कालिंदी का तट अकबर ने ही वहां के लोगों को दिया था जिसके असली कागजाद फारसी अक्षरों में लिखे हुए अब तक उस मंदिर की तिजोरी में बंद हैं | भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकारीयों ने उन्हें मसालों और दवाइयों से कोट करके के सुरक्षित कर लैमिनेट करवा के रखा है | वास्तविकता यह है की उसी मदिर के एक पुजारी के मन में लालच आया की असली रामायण यदि किसी राजा महाराजा को बेच दी जाए तो अधिक धन की प्राप्ति होगी | इसी लोभ में वह उन्हें चुरा कर भागा | जब लोगो को मालूम चला तो उसके पीछे पूरी सेना लग गयी , पकडे जाने के भय से उसने सभी सात काण्ड नदी में फेंक दिए | मछुवारों और तैराकों की मदद से वे निकाल तो लिए गये किन्तु हाथ से बनाया हुआ वो कागज गल गया | बहुत बचाने के बाद भी वह सुरक्षित न रह पाए और आज सिर्फ अयोध्या काण्ड ही हमारे पास मौजूद है | देवनागरी लिपि में लिखी गयी राम चरित मानस हालाँकि अवधी और बृजभाषा में ही रचित है किन्तु बीते साढ़े पांच सौ सालों में हिंदी भाषा के कई अक्षरों में बदलाव आया है | यह सब महत्वपूर्ण जानकारियाँ हमे किसी किताब में कभी न मिलती इसलिए उसकी एक प्रति आपसे बाँट रही हूँ |           
इतना सब जानने सुनने के बाद यह मालूम हुआ की भारत की संस्कृति कितनी विराट है और हमारे मन में इसे लेकर कितनी भ्रांतियां हैं | सबसे दुःख की बात यह है की जो स्थान हमारी संस्कृति के लिए इतने गौरव का विषय है उस स्थान पर मूलभूत सुविधाऐ भी नही है | टूटी सड़क , बिजली की ख़राब व्यस्था , ख़राब बाज़ार आदि| जिस स्थान पर इतने महत्वपूर्ण घटनाए हुई हो उसे कोई सरकार कैसे अनदेखा कर सकती है | मेरे लेख के माध्यम से मैं लोगो से अनुरोध करती हूँ की अधिक से अधिक लोग अपनी संस्कृति को जाने समझे , अपने बच्चों को ऐसी जगहों पर अवश्य ले जाएं और यदि इसके विकास में आपका कुछ भी योगदान हो सकता हो तो अवश्य दे| यह हमारे देश और हमारी विरासत के लिए हमारा एक अद्वितीय योगदान होगा |
|| इति ||
-    आँचल

                  


 












Saturday, 3 January 2015

नव वर्ष मंगलमय हो


मेरे जीवनसाथी,

साल २०१४ तो मानो पलक झपकते ही बीत गया और यह नया साल नयी उमीदों के साथ हमारे कल को सँवारने के लिए हमारे सामने खड़ा है | बीता साल मुझे कई खट्टी मीठी यादे तोहफे में दे गया | तुम हालाँकि मेरे जीवन साथी मेरे समय के आरम्भ से हो पर इस साल जब मैंने अपने वैवाहिक जीवन में प्रवेश किया तो इस तरह से वर्षों का यह आना जाना मुझे काफी अपना सा लगने लगा | वियोग और संयोग का मिश्रण| सुख और दुःख का संगम | जाने वाला साल एक लड़की की तरह जो अब अपना घर छोड़ कर अपने ससुराल में यानी नए साल में कदम रख रही हो | बीते सालों से जिस तरह हम अपने अनुभवों और यादों को संजोते हैं, महीने दर महीने जीवन के उतर चढ़ावों को झेलते हैं उन्ही बातों की सीढ़ी बनाकर नए साल में हम आगे बढ़ते जाते हैं | एक लड़की का जीवन भी तो ऐसा ही होता हैं ,जिन संस्कारों को वो अपने घर में सीखती समझती है उन्ही आचार व्यव्हारों को लेकर वो अपने ससुराल जाती है | पुराने सभी रिश्तों को बीते दिनों की तरह पीछे छोडती हुई और नए रिश्तों से मन लगाती हुई | पूरा जीवन अगर महसूस किया जाए तो कुछ इसी प्रथा का उदाहरण है या यूँ कहें की यह प्रथा जीवन चक्र का उदाहरण | गीता में लिखा है की आत्मा को नए शरीर में जाने के लिए पुराने शरीर को त्यागना पड़ता है जैसे हर नए रिश्ते को अपनाने के लिए पुराने रिश्तों से नाता तोडना पड़ता है जैसे हर नए साल में जाने के लिए पुराने साल को पीछे छोडके आगे आना पड़ता है | यह आते जाते साल कुछ सात फेरों जैसे लगते हैं | मन गीत की उन पंकित्यों को दोहराता है कि जैसे जैसे भांवर पड़े मन अपनों को छोड़े ,इक इक भांवर नाता अनजानों से जोड़े | ऐसे ही जैसे साल दर साल हम एक नयी भांवर पार करके अनजाने नए वर्ष से जुड़ जाते हैं और बीते रिश्तों और बातों की कचोटन को कहीं पीछे दबाते चलते हैं | शायद इसी का नाम तो जीवन है |
और फिर आने वाला साल कैसा होगा इसका अंदाज़ा होने वाली ससुराल की तरह केवल पहले से ही लगाया जा सकता है , जब उसमे पांव पड़ते हैं तब उसकी वास्तविकता का अंदाजा होता है की वो वाकई वैसा ही है जैसा हमने सोचा और प्लान किया था या उससे कुछ अच्छा या ख़राब | पर नया साल और ससुराल दोनों एक से ही हैं दोनों में ही सभी बातें इस बात पर निर्भर करती हैं की हम समय और परिस्थितियों के साथ किस तरह सामंजस्य बना सकते हैं | किताबी बातों से एकदम परे वास्तविकता का धरातल है ये दोनों| और तुम मेरे आचरण तुम मेरे जीवन साथी हो और तुम्हे भीड़ से अलग देखने की इच्छा में मैं अपने जीवन का एक और साल तुम्हारे नाम करती हूँ | मेरे साथ तुम्हारे सम्बन्ध इस बात पर निर्भर करते हैं की मैंने अपने मायके यानि की पुराने साल से कैसे संस्कार लिए हैं | अपने जीवन साथी से प्रेम और उसका सम्मान करना उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करना हर एक पत्नी का कर्तव्य होता है तभी तो वह अपने जीवन को उच्चतम बना पाएगी | तुमसे मेरे संबंधों को मेरे परिवेश ने पाला पोसा है और तुम्हारे हाथों को थामे मैं आज फिर एक नए वर्ष में प्रवेश कर रही हूँ | यहाँ से आगे का पूरा सफर पहले की तरह सिर्फ तुम्हे और मुझे अकेले तय करना है | जीवन की कठिनाईयों में मैं आशा करती हूँ की तुम मेरे साथ मजबूती से खड़े रहोगे क्योकि तुम्हारा कमजोर पड़ना मेरे लिए घातक साबित हो सकता है |तुम्हारे साथ मेरी गृहस्थी की नीव पड़े हुए एक अरसा बीत गया लेकिन हर नया वर्ष नए संघर्षों को लाता है और मुझमे तुमसे अलग होने का भय पैदा कर देता है | इस वर्ष मेरे जीवनसाथी मैं तुम्हारे साथ अपने रिश्ते को विश्वास और धैर्य के एक अलग शिखर पर ले जाना चाहती हूँ |मैं चाहती हूँ की हमारे प्रेम की प्रगाढ़ता नित प्रतिदिन बढे और हमारे साथ की डोर और अधिक मजबूत हो | मेरे आचरण मेरे जीवन साथी नए साल की नयी चुनौतियों में तुम्हारे साथ के सहारे मैं कोई भी बाधा पार कर सकती हूँ | बस आशा है की नया वर्ष हमारे सम्बन्ध को खुशियों से भर दे |

नयी उम्मीदों और नए संघर्षों के साथ आया यह नवीन वर्ष तुम्हे मंगल मय हो |