Wednesday, 15 April 2015

मैंने जीवन के कई पतझड़ देखें हैं |


लोग कहते हैं फलां ने इतने वसंत देखे, इन्होने इतने , उन्होंने उतने और मैंने भी न जाने कितने | पर आज जब काम पर जा रही थी तो गिरते हुए पत्ते और तेज़ी से उडती धुल को देख कर मन में सहसा सवाल आया की भई कोई ये क्यों नहीं कहता के मैंने इतने पतझड़ देखें हैं | क्यों भई इतनी क्या नाराज़गी पतझड़ से | अब जब पुराने पत्ते झडेंगे तभी तो नई कोपलें खिलेंगी | तो इनडायरेक्टली सारा क्रेडिट तो पतझड़ का ही हुआ |

हुआ यूँ की मैं अपने दो पहिये के हेलीकाप्टर से अपने कार्यस्थल पर जा रही थी | जहाँ पर सड़कों में जाम वगैरह लगा था वहां तो कोई खास एहसास नहीं हुआ पर जहाँ ग्रीन बेल्ट थी और सन्नाटी सड़क वहां पर पत्तों का गिरना कई पुरानी यादों को ताज़ा का गया | स्कूल जाने के दिनों में यह पतझड़ जो हैं वो और हमारे इम्तेहान दोनों लगभग साथ ही आते थे | सूखे सूखे दिन , तेज़ धूप, बर्फीली हवा , मैदान में बिखरे हरे पीले पत्ते और दिमाग में पढाई की टेंशन | बड़े अजीब से दिन हुआ करते थे , कुछ ऐसे मानो की किसी प्रेमी को अपनी प्रेमिका से कोई धोखा मिला हो और वो सड़कों पर दर बदर अपने आंसू और दुःख समेटे घूम रहा हो | वीरान तनहा सड़कों पर | हाँ किसी विषय का पेपर बिगड़ जाने पर हमारे भी कुछ यही हाल होते थे | तो मेरे लिए यह मौसम दिल टूटने वाला टाइप का हो जाता था | मौसम ही कुछ ऐसा होता है यह शायद | जबसे मैंने जाना है तबसे इस मौसम में अपने आस पास लोगो को रिश्तों से उलझते ही देखा है | न जाने क्यों ? कभी दोस्ती में अनबन कभी रिश्तों में बैर | या शायद दिल इन गिरते पत्तों को अपने टूटते रिश्तों से जोड़ लेता है जो वापस कभी उस तरह से नहीं जुड़ते | गौर फरमाएं तो हमारी फिल्मे भी इस अजीब उलझन को गिरते पत्तों और टूटी शाखों के माध्यम से ही फिल्माती हैं | “ वो शाख गिरा दो , मेरा वो सामान लौटा दो “  गुलज़ार का गीत भी एक दुःख भरे एहसास को दर्शाता है | पर फिर वही बात की पतझड़ का शोक मनाने में हम अपने जीवन में आने वाले वसंत का स्वागत करना भूल जाते हैं |हम हमेशा दुःख के पीछे भागते है | क्यों ? जीवन ने हमे और आपको बहुत ही बहुमूल्य चीजें और रिश्तों से नवाज़ा है लेकिन जरा ध्यान दीजिये की आप और हम और बाकी सब भी उसके पीछे रोते हैं जो हमे नहीं मिला |

एक और वाकया आपसे बाटती हूँ | देखिये की किसी मैगज़ीन में अगर एक ख़ुशी की कहानी या लेख हो और एक दुःख भरा लेख हो और दोनों में ही भाव बराबर की मात्रा में हों तब भी हम स्वयं को उस दुःख भरी घटना से अधिक जुड़ा हुआ महसूस करते हैं | कभी गौर से सोचें तो इसका उत्तर यही है की हम हमेशा अपने आसपास दुःख और पीड़ा को ही ढूंढते हैं | हमेशा खुश होने के लिए दुःख का इंतजार करते हैं | मेरे पास ये नहीं , मेरे पास वो नहीं , मुझे ये नहीं मिला , मुझे वो नहीं मिला , मेरी यह चीज़ खो गयी , मेरी मेहनत को परिणाम नहीं मिला, उसने मुझे ये कहा , वो कहा , मैंने ऐसा किया पर ऐसा न हुआ और न जाने क्या क्या | क्या यह सब दुःख के पीछे रेस लगाना नहीं है ? क्या यह असंतोष नहीं है ? क्या यह स्वयं को मौजूदा खुशियों से परे रखना नहीं है ?और क्या यह झड़ते हुए पत्तों पर शोक मनाना नहीं है ?

झड़ते बालों पर जरुर शोक मनाइए पर झड़ते पत्तों पर नहीं | यह प्रकृति का नियम है | हर रात की सुबह निश्चित है | इसलिए भई हम तो अपने जीवन के वसंत नहीं पतझड़ काउंट करते हैं | आप भी कीजिये और मुस्कुराते रहिये | 

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