Tuesday, 5 January 2016

भूल न जाएं कि हिंदी हैं हम !



बड़े दुर्भाग्य की बात है की हिंदी हमारी राजभाषा मातृभाषा तो है पर हमारे भीतर से हिंदी का अस्तित्व कहीं खोता सा जा रहा है | हिंदी में बात करना हम अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं | लोगों के बीच में हिंदी में बात करना सिर्फ हमारे स्टेटस को लो करता है | वो भाषा जिसने हमारी सोच को नए आयाम दिए आज सिर्फ एक ऐसी भाषा बन कर रह गयी है जिसमे गालियाँ देने में लोगों को “फील” आता है | किसी अहम् मुद्दे पर बहस हो या किसी कंपनी के लिए हाउस जर्नल में छपा लेख; अंग्रेजी में लिखे और बोले जाने वाली बातें ही गहरी मानी जाने लगी है और बाकी सभी भाषाएँ सतही हो चली है |

पत्रकारिता और मीडिया कई मुआमलों में हिंदी भाषा और क्षेत्रीय भाषा को महत्व दे रहे हैं लेकिन यदि जड़ों में देखें तो हिंदी न जाने कहाँ खो गयी है | क्या मालूम गलती किस स्तर पर हुई पर आज उसका असर काफी भयानक नज़र आ रहा है | जिस देश में लोगों को अपने चिन्ह और अपनी भाषा का ज्ञान नहीं उस देश की प्रगति के मार्ग पर सिर्फ रोड़ें ही नज़र आते हैं |

हिंदी दिवस पर आज कुछ ऐसा ही किस्सा सामने आया | स्नातक के छात्रों से यूँही हिंदी के आयाम व स्वरुप पर चर्चा करते हुए जब उन्हें इस विषय पर एक निबंध लिखने के लिए दिया तो बच्चों के पसीने छूट गए | सभी छात्र अच्छे घरों से ताल्लुक रखते थे और सभी ने अच्छे विद्यालाओं से पढाई की थी लेकिन हिंदी लिखने के नाम पर सभी के चहरों पर बारह बजे हुए थे| उनका कहना था की इसी विषय पर वे अंग्रेजी में बड़े से बड़ा लेख लिख सकते हैं | पर न जाने क्यों हिंदी में १०० शब्द भी लिख पाना उनके लिए दूभर हो गया था | आखिर अपनी मातृभाषा से इतना सौतेलापन क्यों ?

जहाँ तक मेरी सोच का दायरा जाता है ; इस सौतेलेपन की शुरुआत तभी से हो जाती है जब से हम पैदा होते हैं | पैदा होते ही बच्चों को A B C सिखाया जाता है | किसी माँ बाप ने अपने बच्चों को कभी भी क ख ग पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई | आजकल बच्चों को खाने में चपाती ही पसंद है रोटी का मतलब उन्हें नहीं पता , वे रजाई में नहीं कुइल्ट में सोते हैं | उनकी फवोरेट बर्ड पैरेट है , पसंदीदा पक्षी क्या होता है वे नहीं जानते | गणपति देव उनके लिए लार्ड गणेशा हैं| बा बा ब्लैक शीप तो वो जानते हैं पर काली भेंड़ क्या होती है उन्हें नहीं पता| अभिभावक बोलते हैं बेटा आईज बता दो अंकल को नोज बताओ, टंग बताओ तो बच्चा सब बता लेगा ; पर कहीं गलती से किसी ने पूछ लिया की बेटा आँखे बताओ , नाक बताओ या जीभ बताओ तो बेटा पहले अपने घरवालों का चेहरा देखेगा की यह आउट ऑफ़ दी कोर्स क्वेश्चन क्यों पूछा ?

आज चाचा ताऊ मामा सो डाउन मार्किट हो गयें हैं | केवल अंकल ही फैशन में हैं | हमारे स्कूलों में भी बच्चों को हिंदी बोलने पर फाइन लगा दिया जाता है | हिंदी विषय में कुछेक कहानियों के सिवाय कुछ और नहीं पढाया जाता जिसे बच्चे रट कर किसी तरह से पास हो जाते हैं | हिंदी विषय में फेल को फेल नहीं माना जाता | मात्राओं और वर्तनी की अशुद्धियों पर तो कभी विचार किया ही नहीं गया | ऐसे में व्याकरण और उच्चारण पर ध्यान देना तो बहुत दूर की बात हो गयी | अब इन हालातों में बच्चे कैसे सीख पाएंगे | और फिर यूँही धीरे धीरे हमारी मातृभाषा बे मौत मारी जाएगी |

आज के लोगों को कोई भी भाषा पूरी नहीं आती | न ही वे हिंदी में पारंगत है और ना ही अंग्रेजी में |हिंदी से तो वो इतनी दूर भागते हैं मानो किसी दुसरे ग्रह का एलियन पीछे पड़ गया हो | हम अब तक अंग्रेजी के लिए पागल पागल फिरते थे और अब हमें फ्रेंच और जर्मन सिखने का भूत सवार है पर हमारे पास जो इतना मूल्यवान साहित्य है उसकी ओर हम देखना भी नही चाहते | किसी भी पुस्तक मेले में अंग्रेजी की स्टाल पर भीड़ रहती है और हिंदी साहित्य केवल पाठको की राह तकते हुए वापस अपने बंडलों में चला जाता है |

इस तरह का रवैया जबतक चलता रहेगा भाषा का पतन निश्चित ही चलता रहेगा | और जो लोग अपनी भाषा को नही सीख पाते वे किसी दूसरी भाषा को कैसे अपना पाएँगे | देश का विकास उसकी भाषा और उसके चिन्हों के विकास से ही संभव है | हिंदी दिवस मनाते मनाते हम कहीं हिंदी श्रद्धांजली दिवस न मनाने लग जाएं इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ेगा |

उम्मीद है इस लेख के माध्यम से हिंदी के लिए कुछ भाव जागृत हों |

हम भी कलाम !!!




पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्दुल कलाम साहब बड़े ही कमाल के व्यक्तित्व थे | ३ रोज़ पहले अकस्मात् उनके निधन ने देश को असीम क्षति पहुंचाई है | उनके विषय में लिखने को मेरे पास शब्द नहीं थे , पर जैसे ही उनके नाम के आगे स्वर्गीय लिखा, ऐसा लगा जैसे किसी अपने को एक झटके से खो दिया हो| मानो कोई हाथ से रेत की तरह फिसल गया या कोई हरा भरा बगीचा हवा के एक झोंके से उजड़ गया| भारत ने सदियों में कहीं पैदा होने वाले अपने एक ऐसे पुत्र को खो दिया जिसकी इस समय देश को बहुत अधिक ज़रूरत थी |
कलाम ने चलते चलते जीवन के कई मूल्यों को सिद्ध कर दिया | सरल जीवन जीने और उच्चतम विचार रखने वाले कलाम भारत के ११वें राष्ट्रपति होने के साथ ही महान विचारक, विद्वान वैज्ञानिक और उच्च कोटि के मनुष्य थे लेकिन इतिहास में वे अपना नाम किसी राष्ट्रपति, वैज्ञानिक या विचारक के रूप में नहीं बल्कि एक शिक्षक के तौर पर दर्ज करना चाहते थे | और प्रकृति के खेल देखिये की उनकी अंतिम इच्छा स्वयम इश्वर ने पूरी की| उनकी मृत्यु के विषय में सभी को ज्ञात है | प्रारंभिक जीवन को आभाव में बिताने के बाद भी जो व्यक्ति भारत का मिसाइल मैन बना वो कलाम साहब के अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता था | वे एक साइंटिफिक संत थे | राष्ट्रपति के पद से मुक्त होते ही उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी दान कर दी |
सांवल चेहरा लम्बे बाल और दो इंच की मुस्कान लिए देश के इस पुत्र ने कई पुरानी धारणाओं को तोडा| लम्बे बाल वाले लड़के सिर्फ सलमान या जॉन अब्राहम नहीं होते , वो कलाम भी होते हैं | प्रकृति और बच्चों से प्यार करने वाले कलाम ने यह कहकर शादी नहीं की कि पूरा देश जब उनका परिवार है तो उन्हें अपने परिवार की क्या ज़रूरत| डॉ कलाम प्रत्येक सप्ताह घंटों देश के बच्चों के साथ उनके भविष्य के विषय में सोचते हुए तथा उनके द्वारा विचारणीय विषयों पर चर्चा करते हुए व्यतीत करते थे| सैकड़ों बच्चे उन्हें प्रतिदिन पत्र लिखते और वो सभी पत्रों का जवाब देने का प्रयास करते थे|
शिलोंग में धरती को जीने लायक कैसे बनाया जाये इस विषय पर भाषण देने के बाद उन्होंने बच्चों के साथ विचार विमर्श करने का मन बनाया था की देश को को राजनीति को बेहतर गति कैसे दी जाए| किन्तु यह विमर्श करने के लिए वे हमारे बीच नहीं रहे | वे चाहते थे की बच्चे इस विषय पर अपने क्रन्तिकारी विचारों से नये बदलाव लेकर आये |
एक बार कलाम साहब से एक छात्र ने पूछा की आपके अनुसार भाग्य की कृपा का सफलता में क्या महत्व है ? उन्होंने जवाब दिया कि कठिन परिश्रम पहले आता है.. भाग्य तुम्हारा साथ देगा जब तुम कठिन परिश्रम से लगे रहोगे.. एक प्रसिद्ध कहावत है, “ईश्वर उन्हीं की मदद करते हैं, जो अपने स्वयं की मदद करता है.एक अन्य कहावत यह भी है, कि रातों-रात सफल बनने के लिए कई वर्षों तक कठिन परिश्रम करना पड़ता है| उनका यह मानना था कि विज्ञान जन्म लेता है, और जीता है केवल प्रश्नों द्वारा.. विज्ञान की पूरी आधारशिला प्रश्न करना है. और जैसे कि माता-पिता और अध्यापकगण अच्छी तरह जानते हैं, बच्चे कभी भी न समाप्त होने वाले प्रश्नों के स्रोत हैं, इसलिए बच्चा सबसे पहला वैज्ञानिक है|
कलाम साहब कहते थे की उनके जीवन की यही इच्छा है की वे चलते फिरते, कुछ बेहतर करते कुछ उत्पादक करते , देश हित में तत्पर रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हों | वे चाहते थे की देश के सभी युवा अपनी शिक्षा पूरी कर समपर्ण के साथ काम करें और उसमे श्रेष्ठ बनें| प्रत्येक व्यक्ति कम से कम दस लोगों को पढ़ायें जो परिस्थितयों वश पढ़ नहीं सकते | अपने आसपास कम से कम दस पौधे लगायें और उनकी वृद्धि सुनिश्चित करें | मुसीबत में पड़े लोगों की मदद करें | अपने आसपास के व्यक्तियों को नशे से मुक्ति दिलाएं , इमानदार रहें और भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनायें| सजग नागरिक बने और परिवार को कर्मठ बनायें| देश में समरसता का संचार करें और किसी भी धर्म , जाती और भाषा में अंतर न करें ना ही उसका अपमान करें | मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांगो से मित्रवत रहें जिससे वे सामान्य महसूस करें और कठिन परिश्रम करें और अपने देश की और देश वासियों की सफलता पर गौरवान्वित महसूस करें|
कलाम एक ऐसी शख्सियत थे जिनके आवाहन पर देश में होने वाले दंगे फसाद रुक सकते थे | यूँ तो हर सफल व्यक्ति का कोई न कोई आलोचक होता है पर कलाम एक अपवाद थे | उनका आदर्शमय जीवन हम सभी के लिए हमेशा से प्रेरणास्पद रहा है, उनकी बातें नई दिशा दिखाने वाली हैं, उन्होंने करोड़ों आँखों को बड़े सपने देखना सिखाया है, वे कहते थे, “इससे पहले कि सपने सच हों आपको सपने देखने होंगे।
यह काल चक्र है की जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु निश्चित है | हाँ आपके अकस्मात् ही चले जाने का अपार दुःख है किन्तु हम सब युवा आपके दिए गये आदर्शों का पालन करके अपने भीतर के कलाम को जागा सकते हैं | आपके मूल्यों के पथ पर चलते हुए हमारे भीतर के कलाम की हमारे देश को जरूरत है | आपकी धरा को हम संजोएँगे कलाम| आपको हमारा शत शत प्रणाम|
-    आँचल प्रवीण
स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक

ताकि सशक्त हो देश की हर महिला





महिलाओं के सशक्तिकरण का दौर है | हर ओर कोलाहल मचा है | कहीं कोई मंत्री या नेता महिलाओं को पुरुस्कृत कर रहा है तो कहीं प्रतियोगिताएँ हो रही अपने अपने क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी दिखाने के लिए | वर्तमान में हर कोई बस वीमेन एम्पावरमेंट के मुद्दे को अपनी अपनी तरीके से भुनाने में लगा है | एक ओर टीवी के दर्शकों को एक ऐसी महिला के रोज़ दर्शन होते हैं जो किसी भी मामले में झाँसी की रानी से कम नहीं | दिन भर कांजीवरम की साडी पहने  एंटीक जेवर पहने महंगे मोबाइल लिए महंगी गाड़ियों में बे रोक टोक आती जाती है | घर में किसी काम से उनका कोई सरोकार नहीं क्योंकि एक रामू काका हर दम तैनात रहते हैं| हां घर के मसले वो तुरंत हल कर लेती हैं अगर उसके पति को किसी डायन ने पकड़ लिया हो या किसी को साज़िशे करते हुए रंगे हांथो पकड़ना हो | वो सजावट की मूर्ती तुरंत वीरान सुनसान इलाकों में जाकर पुलिस से पहले सारी गुत्थी सुलझा लेती है |
अब इस कथन से दो बातें स्पष्ट होती है की या तो देश की पुलिस और सुरक्षा इतनी कमजोर है की एक घरेलु औरत उसे पहले सुलझा लेती है | परन्तु इस बिंदु पर मैं कोई भी टिप्पणी नही करुँगी| दूसरी बात यह की क्या यही सशक्त औरत की परिभाषा है जो हमारे टीवी चैनल हमे दिखाते हैं ? मेरे विचार से तो नहीं| शायद आप भी कुच्छ हद तक यही सोचते होंगे | यदि अपने इर्द गिर्द नजर घुमाएँ तो क्या हम ऐसी एक भी महिला को पातें हैं? नहीं ! हमारी माँ दादी चाची बुआ बहन मामी दोस्त आदि आदि ; इनमे से कोई भी ऐसी तो नहीं दिखती | ना ही वो दिन भर कांजीवरम की साडी पहन कर एंटीक ज्वेलरी पहन कर घुमती हैं न ही वो आराम से बैठ कर साजिशों की गुत्थी सुलझाती हैं क्योंकि उन्हें पता है की यहाँ कोई रामू काका उनकी मदद को नही है | मध्यम वर्ग की औरतें टीवी की मध्यम वर्गीय औरतों की तरह फेशियल ब्लीच करायी हुई दिन भर टिंच घूमने वाली औरतों से एकदम अलग हैं|
वो बहुत ही साधारण है | आपकी और हमारी माओं की तरह जो पिता जी की मर्ज़ी के बिना अमूमन एक भी कदम नही लेती | जो ५० वर्ष की आयु में भी ससुराल की बेड़ियों में जकड़ी है | जो अगर बाहर काम करने भी निकलती है तब भी घर आकर नख से शिख तक सब कुछ संभालती है क्योंकि बचपन से उसे यह सिखाया  गया है की कुछ भी हो घर का काम तो औरतों को ही करना है और उन्हें ही शोभा देता है | ये वो औरत है जो कपड़ों में ज़रा सी गंदगी रह जाने पर घर वालों की डांट सुनती है खाने में नमक कम या ज्यादा होने पर उलाहना सुनती है | बे फ़िज़ूल के रीती रिवाज़ जो उसे व्यावहारिक नहीं लगते उन्हें करने के लिए बाधित रहती है | चूड़ी बिंदी बिछिया पायल जैसी खूबसूरत बेड़ियों में जकड़ी रहती है | जो भले ही दफ्तर में एक बेहतरीन एम्प्लोई हो लेकिन घर में वो सिर्फ एक काम करने की मशीन बन कर रह जाती है | हाँ ये वही महिला है जो हमारे आसपास पाई जाती है | आप सोच रहे होंगे की आज के ज़माने में ऐसा कहाँ होता है | पर जनाब नज़र घुमाइए  ज़रा गौर से देखिये आज भी आपको ऐसी औरतें मिलेंगी | और बहुतायत में मिलेंगी |
सवाल ये है की इनका सशक्तिकरण कब होगा| क्या पढ़ लिख जाने से या नौकरी करने की आज़ादी मिलने से वो सशक्त हो गयी है | पर विचारों की स्वतंत्रता तो अब तक नहीं है उसके पास | कोल्हू के बैल की तरह जुटी तो वो आज भी रहती है | इस परिश्रम को नापने का यदि कोई यंत्र हो तो मालूम हो जाए की घर के किसी भी और सदस्य से ज्यादा श्रम उसके हिस्से में आता है जिसका कोई मोल नही है | क्या इस सशक्ति करण के पीछे भी पुरुष सत्तात्मक सोच नहीं दिखती आपको |
हमारे समाज में आज भी विधवा को चटख रंग पहनने की छूट नहीं है | वो चूड़ी नही पहनती  बिंदी नही लगाती बिछिये नही पहनती क्योंकि ये सब उसके पति के साथ खत्म हो गयी | वहीँ अगर एक सुहागन औरत चूड़ी बिंदी बिछिया न पहनना चाहे अलता न लगाना चाहे तो वो कुलक्षिणी है | मतलब की सब कुछ जाकर पुरुष पर ही रुक जाता है ; औरत की अपनी कोई सोच नहीं कोई इच्छा नहीं| क्या यह पुरुष सत्तात्मक सोच नहीं? क्या यह सशक्तिकरण है ? आपको नहीं लगता की यह सब बातें स्वतः होनी चाहिए थोपी हुई नहीं | थोपी हुई सोच बेड़ियों में जकड़ने के समान होती है और सबसे दुखदायी बात तो यह है की इस पुरुष सत्तात्मक सोच को आगे बढ़ाने का ठेका खुद महिलाओं ने उठा रखा है | व्यर्थ के रीती रिवाजों में जिनमे वे जकड़ी थी उसने आज अपनी अगली पीढ़ी को बाँध रखा है | माएं अपनी बेटियों को हमेशा त्याग की मूर्ति बनने की शिक्षा देती है | बदलाव तब होगा जब वो अपनी बेटी को गलत बात न सहने की सीख देगी| कोई सरकार कोई मंत्री कोई नेता कोई व्यापारी कोई भी रोल मॉडल क्या ये बता सकता है की इन औरतों का सशक्ति करण कब होगा? इनका सशक्तिकरण देश बदलेगा | इस विषय में युवाओं को ही कदम उठाना होगा चाहे इसके लिए उन्हें बागी क्यों न बनना पड़े|
-    आँचल प्रवीण

अपवित्र नहीं, अति पवित्र हैं हम




कक्षा ९ में जीव विज्ञान की किताब में एक अध्याय था “ह्यूमन रिप्रोडक्शन “ | जब एक सामान्य प्रकिया से पढने वाला विद्यार्थी कक्षा ९ में होता है तो उसकी एक औसत उम्र होती है लगभग चौदह या पंद्रह साल | हम सब भी उसी उम्र के आसपास ही थे | क्योंकि हमारा स्कूल एक को-एजुकेशन स्कूल था तो जाहिर सी बात है की क्लास में लड़के और लड़कियां दोनों ही थे | उम्र के इस पड़ाव में दोनों के ही शरीर में कुछ प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक बदलाव आते हैं | हमारे समाज की ये अजीब विडंबना है की यहाँ जिन बातों पर चर्चा होनी जरुरी होती है उन्हें सौ पर्दों के भीतर छुपा कर रखते है और जिन चीजों पर रोक होनी चाहिए उन्हें खुले आम करते हैं जैसे गंदगी | अब क्योंकि सेक्स एजुकेशन और मासिक धर्म जैसी चीजों के बारे में कभी बात ही नही होती तो किताब में उसके बारे में एक विस्तृत अध्याय और चित्रों के साथ पूरा विश्लेषण उस उम्र में हमें बहुत आकर्षित करता था | यह आज से कुछ दस वर्ष पुरानी बात है जब इन्टरनेट था तो पर स्मार्ट फ़ोन्स के रूप में हमारे हाथों में नहीं था | हालांकि आज के बच्चे तो इन्टरनेट साथ ले कर पैदा होते है |
तो शुरुआत वहीँ से हुई | जब मैडम ने ह्यूमन रिप्रोडक्शन वाला अध्याय पढाया ही नहीं | उस वक़्त हमारे मनों में भी घर वालों की शिक्षा थी की बेटा ये सब बाते छुपा के रखी जाती हैं| १३ से १४ वर्ष की आयु में जब मासिक धर्म शुरू हुआ तो तमाम चीज़े बदल गयी | एक पढ़े लिखे समझदार परिवार से होने के बाद भी मुझे पूजा पाठ से दूर रखा गया और अचार को छूने पर सख्त पाबन्दी लगा दी गयी | उस समय मन में सवाल तो थे पर माँ और दादी के पास न जवाब था और न हिम्मत इन अंधविश्वासों से ऊपर उठने की | ये सिर्फ मेरी कहानी नहीं यह कहानी है आधी आबादी की |
अभी हाल ही में माहवारी के दौरान कपड़ों से बिस्तर पर लगे खून के दाग की एक फोटो ने इन्स्टाग्राम पर तहल्का मचा दिया | लोगों ने इसके खिलाफ अपने अपने विचार दिए | पर सवाल इतना है की इसमें गलत क्या है | माहवारी एक प्राकृतिक प्रकिया है जिसमे महिला का शरीर अपनी परिपक्वता पर आने की शुरुआत करता है और शरीर से गंदगी का परित्याग होता है | इस तौर पर तो महिला इसी दौरान सबसे पवित्र हुई | फिर आराधना करने की मनाही क्यों ? और अचार छूने पर रोक क्यों ? क्या इसका कोई लॉजिकल जवाब है ? इन सब दकियानूसी विचारधाराओं को लेकर आज भी विश्व भर में तमाम रूढ़ियाँ हैं | चाहे महिलाओं का कितना भी सशक्तिकरण हुआ हो या वे किसी भी क्षेत्र में कितनी भी आगे हो माहवारी से सम्बंधित सामाजिक उपेक्षाओं का सामना उन्हें हर जगह करना पड़ता है | आज भी कई परिवारों में लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान परिवार से अलग थलग कर दिया जाता है, मंदिर जाने या पूजा करने की मनाही होती है, रसोई में प्रवेश वर्जित होता है। यहां तक कि उनका बिस्तर अलग कर दिया जाता है और परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य से इस विषय में बातचीत न करने की हिदायत दी जाती है।
आधी आबादी की एक बड़ी और वाजिब प्रक्रिया को समाज तभी स्वीकारेगा जब कक्षाओं में इन चैप्टर्स का एक प्रशिक्षित शिक्षक द्वारा एक गहन अध्ययन करवाया जाए | घरों में अभिभावक इस विषय पर खुल कर अपने बच्चों से बात करे चाहे वो लड़की हो या लड़का | दोनों के लिए ही ये बाते समझना जरुरी है | अपने बच्चों को इस दौरान स्वच्छता के विषय में समझाए | पैड्स के प्रयोग के विषय में समझाए क्योंकि आपके बच्चों को इन चीजों की समझ इन्टरनेट से बेहतर आप खुद दे सकते हैं | बेटी की परवरिश शर्म के परदे में और बेटे की परवरिश लापरवाही में ना हो | इसी से हमारे समाज में बदलाव आएगा जिसकी हमे जरूरत है | मासिक धर्म को टैबू न बनाये इसे एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही रहने दे | सामाजिक कुरीतियों से ऊपर उठकर महिलाओं की इज्ज़त करें | विश्वास करें आपको खुद में बेहतर महसूस होगा |

-    आँचल श्रीवास्तव
15-4-15

हर रिश्ते की पहली कड़ी हो तुम मेरे दोस्त !!!




यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी... अरे जनाब सुनिए मैं बिलकुल ठीक हूँ और ये गीत गा के आपको ये याद दिलाना चाहती हूँ की अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस यानि आपका और हमारा चहीता फ्रेंडशिप डे बस आ ही गया है | अब बात शुरू हुई गाने से तो याद दिला दूं के हमारी बॉलीवुड इंडस्ट्री ने अबतक दोस्ती पर आधारित इतनी फिल्मे बनायीं है जिन्हें हम अगर याद करने बैठे तो पूरा दिन कब बीत जाएगा मालूम ही नहीं चलेगा | दोस्ती चाहे दोस्त से हो या माँ बाप से ; प्रेमी से हो या प्रकृति से या फिर जानवरों से या पेड़ पौधों से इन सभी पहलुओं को हमने फिल्मों के माध्यम से बहुत अच्छी तरह से जाना और समझा है |
बात करें 1964 में बनी फिल्म दोस्ती की जिसमे दो दोस्त एक दुसरे की विकलांगता को ठेंगा दिखाते हुई सभी दिक्कतों से लड़ते हुए जिंदगी की दौड़ जीतते है, या बात करें १९८१ में बनी याराना की जिसमे एक दोस्त अपना सबकुछ अपने दोस्त को एक चमकता हुआ सितारा बनाने के लिए दांव पे लगा देता है | ज़ंजीर १९७३, मासूम १९८३ , हाथी मेरे साथी १९७१ , आनंद १९७१, शोले १९७५, अंदाज़ अपना अपना १९९४,  दिल चाहता है २००१ , रंग दे बसंती २००६, रॉक ओन २००८, कुछ कुछ होता है १९९८, जाने तू या जाने ना २००८, मुन्ना भाई २००३ , दोस्ताना २००८, थ्री इडियट्स २००९, ये जवानी है दीवानी २०१३, क्वीन २०१४ , काई पो छे २०१३ ,जिंदगी न मिलेगी दोबारा २०११, कोई मिल गया २००३ आदि कई ऐसी फ़िल्में है जो आम जिंदगी से ऊपर उठकर हमारे सामने दोस्ती का एक दूसरा पहलु उजागर करती हैं|
अगर गहरायी से समझे तो आप पाएंगे की ये रिश्ता इतना विशालऔर विस्तृत है की इसे किसी एक दिन की सीमा में बाँध पाना संभव नहीं है | दोस्तों के लिए तो हर रोज़ ही फ्रेंडशिप डे होता है | मुझे याद है स्कूल के दिनों में हम सभी अपने दोस्तों के लिए दर्जनों फ्रेंडशिप बैंड्स , गिफ्ट्स और कार्ड्स लेकर जाते थे | आज भी वे एक बंडल के जैसे मेरे पास रखे हुए हैं पर आज दोस्त के नाम पर उनमे से कुछ ४ ६ लोग ही साथ है| पर कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जिनके साथ वक्त ने हमे एक अनदेखे फ्रेंडशिप बैंड से बांधा है और बिना किसी दिखावे और उम्मीद के वो हमेशा साथ होते हैं| यही समय है जो हमें हमारे दोस्तों की परख कराता है | कहते हैं सुदामा और कृष्ण की दोस्ती , राम और विभीषण की मित्रता, अर्जुन और कृष्ण की मित्रता हमारे लिए मिसाल हैं| रिश्ता जो भी हो शुरुआत दोस्ती से ही होती है | माँ बाप भी सबसे पहले दोस्त बनकर हमारे सुख दुःख बांटते है | जीवन साथी के साथ शुरू हुआ रिश्ता भी पहले दोस्ती से ही अपनी नीव डालता है | कहते हैं रिश्तों में अगर हम अच्छे दोस्त ना बन पाए तो रिश्ते की जड़ें कमजोर रह जाती हैं |
दोस्ती का एक और पहलु है जो हमारा रिश्ता प्रकृति और उसके अंश से कायम रखता है | हमारी हमारे पेड़ पौधों से , चिड़ियों, गिलहरियों , जानवरों से दोस्ती| हमेशा से हम सुनते हैं हैं की कुत्ता इंसान का सबसे घनिष्ट मित्र होता है | किसी भी विपदा में चाहे कोई संग हो न हो वो आखिरी सांस तक हमारे साथ होता है | दोस्ती के पहलुओं को गिनने बैठेंगे तो शायद मेरे पास शब्दों की कमी पड़ जाए| इस कड़ी में यदि किताबों को भूल गये तो मित्रता की परिभाषा अधूरी रह जाएगी| किताबें हममे से कईयों की मित्र है | कलाम साहब भी कह गए हैं की एक अच्छी किताब सौ मित्रों के बराबर होती है और एक सच्चा मित्र पूरी लाइब्रेरी के समान|
बिना किसी स्वार्थ के अपने दोस्त के लिए हमेशा खड़े रहना| हमेशा उसे आगे बढ़ाना, उसके अवगुणों को कभी ना छिपाना , सुख दुःख सबमे परछाई की तरह खड़े रहना यही तो है दोस्ती | तो अब देखिये की जीवन का हर रिश्ता यहीं कहीं किसी दोस्ती से ही तो शुरू हुआ ना ? अंग्रेजी में एक मशहूर कथन है – “A friend is one who knows the song of your heart and can sing it back whenever you have forgotten the words”.
तो किसी एक दिन नहीं हर दिन अपने दोस्तों के संग मनाईये हैप्पी वाला फ्रेंडशिप डे|

-    आँचल प्रवीण