कक्षा ९ में जीव विज्ञान की किताब में एक अध्याय था “ह्यूमन
रिप्रोडक्शन “ | जब एक सामान्य प्रकिया से पढने वाला विद्यार्थी कक्षा ९ में होता
है तो उसकी एक औसत उम्र होती है लगभग चौदह या पंद्रह साल | हम सब भी उसी उम्र के
आसपास ही थे | क्योंकि हमारा स्कूल एक को-एजुकेशन स्कूल था तो जाहिर सी बात है की
क्लास में लड़के और लड़कियां दोनों ही थे | उम्र के इस पड़ाव में दोनों के ही शरीर
में कुछ प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक बदलाव आते हैं | हमारे समाज की ये अजीब विडंबना
है की यहाँ जिन बातों पर चर्चा होनी जरुरी होती है उन्हें सौ पर्दों के भीतर छुपा
कर रखते है और जिन चीजों पर रोक होनी चाहिए उन्हें खुले आम करते हैं जैसे गंदगी |
अब क्योंकि सेक्स एजुकेशन और मासिक धर्म जैसी चीजों के बारे में कभी बात ही नही
होती तो किताब में उसके बारे में एक विस्तृत अध्याय और चित्रों के साथ पूरा
विश्लेषण उस उम्र में हमें बहुत आकर्षित करता था | यह आज से कुछ दस वर्ष पुरानी
बात है जब इन्टरनेट था तो पर स्मार्ट फ़ोन्स के रूप में हमारे हाथों में नहीं था |
हालांकि आज के बच्चे तो इन्टरनेट साथ ले कर पैदा होते है |
तो शुरुआत वहीँ से हुई | जब मैडम ने ह्यूमन रिप्रोडक्शन
वाला अध्याय पढाया ही नहीं | उस वक़्त हमारे मनों में भी घर वालों की शिक्षा थी की
बेटा ये सब बाते छुपा के रखी जाती हैं| १३ से १४ वर्ष की आयु में जब मासिक धर्म
शुरू हुआ तो तमाम चीज़े बदल गयी | एक पढ़े लिखे समझदार परिवार से होने के बाद भी
मुझे पूजा पाठ से दूर रखा गया और अचार को छूने पर सख्त पाबन्दी लगा दी गयी | उस
समय मन में सवाल तो थे पर माँ और दादी के पास न जवाब था और न हिम्मत इन
अंधविश्वासों से ऊपर उठने की | ये सिर्फ मेरी कहानी नहीं यह कहानी है आधी आबादी की
|
अभी हाल ही में माहवारी के दौरान कपड़ों से बिस्तर पर लगे
खून के दाग की एक फोटो ने इन्स्टाग्राम पर तहल्का मचा दिया | लोगों ने इसके खिलाफ
अपने अपने विचार दिए | पर सवाल इतना है की इसमें गलत क्या है | माहवारी एक
प्राकृतिक प्रकिया है जिसमे महिला का शरीर अपनी परिपक्वता पर आने की शुरुआत करता
है और शरीर से गंदगी का परित्याग होता है | इस तौर पर तो महिला इसी दौरान सबसे
पवित्र हुई | फिर आराधना करने की मनाही क्यों ? और अचार छूने पर रोक क्यों ? क्या
इसका कोई लॉजिकल जवाब है ? इन सब दकियानूसी विचारधाराओं को लेकर आज भी विश्व भर
में तमाम रूढ़ियाँ हैं | चाहे महिलाओं का कितना भी सशक्तिकरण हुआ हो या वे किसी भी
क्षेत्र में कितनी भी आगे हो माहवारी से सम्बंधित सामाजिक उपेक्षाओं का सामना
उन्हें हर जगह करना पड़ता है | आज भी कई परिवारों में लड़कियों को मासिक धर्म के
दौरान परिवार से अलग थलग कर दिया जाता है, मंदिर जाने या पूजा करने की मनाही होती है,
रसोई में प्रवेश
वर्जित होता है। यहां तक कि उनका बिस्तर अलग कर दिया जाता है और परिवार के किसी भी
पुरुष सदस्य से इस विषय में बातचीत न करने की हिदायत दी जाती है।
आधी आबादी की एक बड़ी और वाजिब प्रक्रिया को समाज तभी
स्वीकारेगा जब कक्षाओं में इन चैप्टर्स का एक प्रशिक्षित शिक्षक द्वारा एक गहन
अध्ययन करवाया जाए | घरों में अभिभावक इस विषय पर खुल कर अपने बच्चों से बात करे
चाहे वो लड़की हो या लड़का | दोनों के लिए ही ये बाते समझना जरुरी है | अपने बच्चों
को इस दौरान स्वच्छता के विषय में समझाए | पैड्स के प्रयोग के विषय में समझाए
क्योंकि आपके बच्चों को इन चीजों की समझ इन्टरनेट से बेहतर आप खुद दे सकते हैं |
बेटी की परवरिश शर्म के परदे में और बेटे की परवरिश लापरवाही में ना हो | इसी से
हमारे समाज में बदलाव आएगा जिसकी हमे जरूरत है | मासिक धर्म को टैबू न बनाये इसे
एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही रहने दे | सामाजिक कुरीतियों से ऊपर उठकर महिलाओं की
इज्ज़त करें | विश्वास करें आपको खुद में बेहतर महसूस होगा |
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आँचल श्रीवास्तव
15-4-15
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