जब चारों ओऱ घुप्प अंधकार हो तब रौशनी की कीमत समझ में आती है| सलाखों के पीछे का जीवन यकीनन बेहद मायूस होता होगा | अपने अपनों से दूर गैरों के बीच अँधेरे कमरों में ‚ अपराध बोध के साथ जीवन काटना बेहद कठिन काम है | महिला दिवस के इस अवसर पर अज हम लाये हैं उन महिलाओं की कहानियां जो किसी न किसी जुर्म की सज़ा में जेल की चार दिवारी में बंद हैं | ये किसी की माँ ‚ किसी की पत्नी ‚ बेटी ‚ बहु या दोस्त हैं | किसी भी आम महिला की तरह उन्हें भी अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों की परवाह होती है |
इस देश की आधी आबादी औऱतों की है और जेल में बंद कुल कैदियों का करीब साढ़े चार फीसदी हिस्सा जेलों में कैद है, कुछ गुमनाम, कुछ हमनाम, कुछ उदास, तो कुछ की आंखों में सवाल, औऱ दिल में हालात की कुलबुलाहट।
यूँ हुआ एक बार की लखनऊ के नारी बंदी निकेतन में मुझे जाने का अवसर मिला |दिल में बड़ी उत्सुकता थी की कैसा होता होगा कैदियों का जीवन |जेल, ये शब्द ही डराता है, सलाखें, काली कोठरियां औऱ कैदियों को घूरती दीवारें, जेल तो ऐसी ही होती है| मैंने अंदर जाने की सभी औपचारिकताएं पूरी की और अंदर जाकर देखा एक खुला आंगन, बागीचा जिसमे कई तरह के औषधियों वाले पौधे और फलदायक पेड़ लगे थे , एक ओर एक तबेला था जहाँ कुछ मवेशी बंधे थे | इन महिला कैदियों को जिन्हें मैं बंदिनी कहूँगी उन्हें वहां घूमने की आज़ादी थी जेल की चहारदीवारी ऊंची थी लेकिन जेल के भीतर धूप आती थी|
हमारा मकसद इन्हें कैद कर के रखने का नही, अपने गुनाहों को ये समझती है, खुद को व्यस्त रखें कान करे ताकि मन बहला रहे| मन की शांति के लिए इन्हें तमाम योगासन और ध्यान प्रक्रियाएं भी सिखाई गयी हैं | इनमे से कई बंदिनियों को उम्रकैद की सज़ा मीली है|जाहिर है गुनाह संगीन हैं, सजा भी लंबी, ऐसे में कहीं पछतावे के आंसू बहते हैं तो कहीं दीवारों से बातों में रातें कटती हैं, कहीं बच्चों की याद में नींद उड़ती है। जेल यहां मजबूरी है तो जेल ही विकल्प भी है। जेल बेड़ी है तो वही जेल आजादी भी है। जेल के भीतर ये दोनों पहलू रह-रहकर मेरे सामने आ-जा रहे थे। जिस भी कैदी से बातचीत हुई, उसके बच्चों का, उसके परिवार का मोह साफ नजर आया।
इनमे से कई ऐसी भी थी जिनका जुर्म विचाराधीन है और इसके अब्व्जूद वो सज़ा काट रही हैं| भारत की जेलें ऐसे विचाराधीन कैदियों से पटी पड़ी हैं। आंकड़ों के मुताबिक, जेल में बंद हर तीन में से दो कैदियों का केस अदालतों की तारीखों में गुम है। कुल 2.8 कैदियों में से करीब 3 हजार अपना फैसला होने के इंतजार में पांच साल से भी ज्यादा वक्त जेल में काट चुके हैं |
किन्तु यहाँ सभी महिलाओं की मूल जरूरतों का ध्यान रखा जाता है |आईये इन पर एक नजर डालते हैं –
महिला बंदियों के लिये सैनिटरी नैपकिन की व्यवस्था समस्त कारागारों में की गयी है|
महिला बंदियों द्वारा स्वयं भोजन प्रबन्धन की व्यवस्था चरणबद्ध रूप से की जा रही है।
जेल मैनुअल में विहित प्राविधानानुरूप महिला बंदी अपने साथ 06 वर्ष तक की आयु के बच्चों को साथ में रख सकती है। बच्चों के लिये प्रदेश की 10 कारागारों में क्रेच भी स्थापित है।
इसके अतिरिक्त नारी बंदी निकेतन, लखनऊ की महिला–बंदियों के बच्चों के लिये पब्लिक स्कूलों में शिक्षण की भी व्यवस्था की जा रही है। बंदियों को फल संरक्षण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, क्रोशिया आधारित बुनाई, अचार व चटनी बनाने की विधि आदि रोजगारपरक उद्यमों में प्रशिक्षण दिलाया जाता है।
आध्यात्मिक उन्नयन हेतु योग, ध्यान प्रशिक्षण तथा हवन यज्ञ आदि के आयोजन और बंदियों के चिकित्सा परीक्षण व उपचार के सम्बन्ध में स्वास्थ्य परीक्षण शिविर, नेत्र परीक्षण शिविर तथा उनके बच्चों के लिये पोलियो कैम्प व टीकाकरण कार्यक्रमों का आयोजन समय–समय पर किया जाता है। विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा महिला बंदियों के लिये शाल आदि तथा बच्चों के लिये गर्म वस्त्र, जूते व मोजे आदि की व्यवस्था की जाती है।
प्रत्येक सोमवार को स्वयं सेवा संस्था द्वारा मेडिकल तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी व्याख्यान दिलाये जाने तथा एड्स एवं गम्भीर बीमारियों के बारे में जानकारी दिये जाने की व्यवस्था की गयी है। विभिन्न स्वयं सेवी संगठनों के तत्वाधान में साक्षरता शिविरों का आयोजन किये जाने और प्रत्येक निरक्षर महिला बंदियों को कार्यरत महिला अध्यापिका द्वारा साक्षर बनाये जाने की व्यवस्था भी समय–समय पर की जाती है।
व्यवस्था कुछ भी हो लेकिन जेल एक जेल ही होती है और इनमे इन बंदिनियों का जीवन बेहद कठोर होता है | १९६३ में बिमल रॉय की फिल्म बन्दिनी में एक ऐसी ही कैदी का किरदार नूतन ने निभाया था जिसे कत्ल के दोष में उम्रकैद की सज़ा हुई थी | आज भी भारत की जेलों में ऐसी अनगिनत बंदिनी हैं, हर बंदिनी की एक कहानी और मानसिक यातना है। जिनकी दुनिया जेल की अंधेरी काली कोठरी है, जहां हर पल पथरीली दीवार पर गुनाह चमकते हुए दिखते हैं| ये औरतें भी किसी परिवार का हिस्सा हैं जिन्हें बेशक महिला दिवस पर एक सलाम करना तो बनता है|
आँचल “प्रवीण” श्रीवास्तव
सहायक प्रोफेसर; पत्रकारिता एवं जनसंचार