बाबू मोशाय गाना सुना गये की खई के पान बनारस
वाला खुल जाए बंद अकल का ताला; ओऊ फिर तो अईसन करे कमाल सीधी कर दे सबकी चाल | तो
भाईसाहब ये है बनारसी पान की महिमा | यहाँ पान की खेती तो नहीं होती लेकिन यहाँ का
बीड़ा एकदम वर्ड फेमस है |
पान के मोहल्ले बसे
हैं यहाँ
लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ दूर दूर से आते
हैं | पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व
का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मुहल्ले बसे हुए हैं। सुबह
सात बजे से लेकर ग्यारह बजे तक इन बाजारों में चहल-पहल रहती है। केवल शहर के पान
विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय
इस जगह पान खरीदने आते हैं।
घुलाते हैं पान को बनारसी लोग
बनारस के अलावा अन्य जगह पाना खाया जाता है, लेकिन
बनारसी पान खाते नहीं, घुलाते हैं। पान घुलाना साधारण क्रिया
नहीं हैं। पान का घुलाना एक प्रकार से यौगिक क्रिया है। यह क्रिया केवल असली
बनारसियों द्वारा ही सम्पन्न होती है। पान मुँह में रखकर लार को इकट्ठा किया जाता
है और यही लार जब तक मुँह में भरी रहती है, पान घुलता है।
पहली बार में निकोटिन निकाल देते हैं
कुछ लोग उसे नाश्ते की तरह चबा जाते हैं, जो पान
घुलाने की श्रेणी में नहीं आता। पान की पहली पीक फेंक दी जाती है ताकि सुर्ती की
निकोटिन निकल जाए। इसके बाद घुलाने की क्रिया शुरू होती है। अगर आप किसी बनारसी का
मुँह फूला हुआ देख लें तो समझ जाइए कि वह इस समय पान घुला रहा है। पान घुलाते समय
वह बात करना पसन्द नहीं करता।
कत्था भी अलग तरीके से प्रयोग करते हैं
बनारसी पान में कत्था विशेष ढंग से बनाकर प्रयोग किया जाता है। पहले कत्थे को
पानी में भिगो देते हैं। अगर उसका रंग अधिक काला हुआ तो उसे दूध में भिगोते हैं। फिर
उसे पकाकर एक चौड़े बर्तन में फैला दिया जाता है। कुछ घंटे बाद जब कत्था जम जाता
है तब उसे एक मोटे कपड़े में बाँधकर सिल या जाँता जैसे वजनी पत्थर के नीचे दबा
देते हैं। इससे कसैलापन और गरमी निकल जाती है। इसके बाद सोंधापन लाने तथा बाकी
कसैलापन निकालने के लिए उसे गरम राख में दबा दिया जाता है। इतना करने पर वह कत्था
थक्का-सा हो जाता है। उसका रंग काफी सफेद हो जाता है। कत्थे के इस थक्के में पानी
मिलाकर खूब घोंटकर और इत्र-गुलाबजल आदि मिलाकर तब पान में लगाया जाता है।
चूना भी होती है स्पेशल
बनारसी पान में जिस प्रकार कत्था-सुपारी अपने ढंग की होती है, उसी प्रकार चूना भी। ताजा चूना यहाँ कभी प्रयोग में नहीं
लाते। पहले चूने को लाकर पानी में बुझा दिया जाता है, फिर
तीन-चार दिन बाद उसे खूब घोंटकर कपड़े से छान लिया जाता है। इससे चूने के सारे
कंकड़ वगैरह छन जाते हैं। छने हुए चूने का पानी जब बैठ जाता है तब उसके नीचे का
चूना काम में लाया जाता है। यदि चूना तेज रहता है तो उसमें दूध या दही का पानी
मिलाकर उसकी गरमी निकाल दी जाती है।
सुरती भी तो है जरूरी
प्रत्येक बनारसी पीली सुर्ती या इधर नयी चली सादी सुर्ती खाना अधिक पसन्द करता
है; काली सुर्ती से उसे बेहद चिढ़ है। पीली सुर्ती तेजाबी होने के
कारण सेहत को नुकसान पहुँचाती है, इसीलिए इधर सादी सुर्ती का
प्रचलन हुआ है। सादी सुर्ती को पहले पानी से खूब धो लेते हैं और सारा गर्द-गुबार
साफ कर लेने के बाद उसमें बराश, छोटी इलायची, पिपरमिंट के चूर तथा गुलाबजल मिलाकर बनाया जाता है। सादी सुर्ती में सबसे
बड़ी खूबी यह है कि अधिक खा लेने पर भी चक्कर नहीं देती।
तो फिर काहे नहीं पान खाए सैयां हमारो; सांवली
सूरतिया होठ लाल लाल|
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