Friday, 20 May 2016

सात फेरे अब नही रहे सात जन्मों का साथ



इतिहास में आज की तारीख के साथ हिन्दू विवाह अधिनियम के साथ जुड़ी हुई है | विवाह को भारत में सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है | विवाह का अर्थ है विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना | पाणिग्रहण संस्कार हिन्दू धर्म में विवाह संस्कार को कहते हैं जो की रीति रिवाजों के अनुसार सात जन्मों का सम्बन्ध होता है | अग्नि के फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर लिए गये सात वचन हमारे हिन्दू धर्म में पौराणिक मान्यताओं के आधार पर जन्म जन्मान्तरों के सम्बन्धों में बदल जाते हैं | इस अनुसार दो तन और दो मन एक आत्मा के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं | हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
किन्तु समय और परिस्तिथिक बदलावों के साथ इस सामाजिक संस्था में भी बड़ा बदलाव आया | लोग पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में इतने व्यस्त हुए की उन्हें घर बार की चिंता ही न रही और इससे उपजे तमाम कारणों से विवाह की अटूट संस्था बेरहमी से टूटने लगी| झगड़े मार पीट दहेज़ बलात्कार और पर पुरुष या स्त्री से विवाहोपरांत सम्बन्धों के बढ़ते चलन ने इस विचारधारा को तहस नहस कर दिया | इसी से निपटने के लिए सरकार ने १९५५ में हिन्दू विवाह अधिनियम के कानून को लागु किया | इस दौरान तीन अधिनियम पारित किये गये : हिन्दू उत्तराधिका अधिनियम १९५५ ; हिन्दू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम १९५६  और हिन्दू एडॉप्शन और भरण पोषण अधिनियम १९५६ | इन सभी नियमों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य हिन्दू विवाह की वैदिक रीतियों को आधुनिकता का कलेवर चढ़ाना था |
आपको बता दूं की इस कानून के तहत कौन कौन सी सुविधाए प्राप्त हैं –
अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में निम्नांकित परिवर्तन किए गए हैं :
  • (१) अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है, चाहे वह किसी जाति का हो।
  • (२) एकविवाह तय किया गया है। द्विविवाह अमान्य एवं दंडनीय भी है।
  • (३) न्यायिक पृथक्करण, विवाह-संबंध-विच्छेद तथा विवाहशून्यता की डिक्री की घोषणा की व्यवस्था की गई है।
  • (४) प्रवृत्तिहीन तथा विवर्ज्य विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है। परंतु इसके लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है।
  • (५) न्यायालयों पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास करें।
  • (६) बाद के बीच या संबंधविच्छेद पर निर्वाहव्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है। तथा
  • (७) न्यायालयों को इस बात का अधिकार दे दिया गया है कि अवयस्क बच्चों की देख रेख एवं भरण पोषण की व्यवस्था करे।
समय इस बात का साक्षी है की भारत की विचारधारा पर पश्चिमी सभ्यता का काफी असर है | ये किसी हद तक ठीक भी है लेकिन एक खुले विचार की महिला होने के नाते भी मैं यह सोच रखती हूँ की विवाह किसी भी धर्म में एक पवित्र बंधन होता है जिसे किन्ही छोटी मोटी परेशानियों या दिक्कतों पर तोड़ने के बारे में नहीं सोचना चाहिए | यह एक विश्वास है जो दोनों हम राहियों को आपस में होना बेहद जरूरी है |

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