अपने जीवन में हम सबने कभी न कभी किसी वाद विवाद में या
चर्चा में इच्छा मृत्यु का ज़िक्र ज़रूर किया होगा | क़ानूनी भाषा में इसे
सुख्म्रुत्यु या यूथेनासिया कहते हैं | अरुणा शानबाघ तो याद होंगी आपको ; वही
जिनके पेचीदा केस के बाद भारत में इच्छा मृत्यु को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला हुआ था
|
आपको बता दूं की १९७३ में किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल मुंबई में काम करने वाली
नर्स अरुणा शानबाघ के साथ हॉस्पिटल में ही कपड़े बदलते समय एक कर्मचारी ने दुराचार
किया था | उसने इन्हें कुत्ते की चैन से बाँध दिया था जिस कारण इनके दिमाग में ऑक्सीजन
की सप्लाई बंद हो गयी और यह एक प्रकार के दिमागी लकवे से ग्रस्त हो गयी या कहें तो
कोमा में चली गयी | इसके बाद ४२ सालों तक यह इस गहरे दिमागी लकवे में रही जिस
दौरान इनका शरीर सामान्य मानवीय कार्य नहीं कर सकता था | वह ४२ सालों तक एक जिंदा
लाश की तरह पड़ी रहीं |
इनकी एक पत्रकार मित्र ने इनके ऊपर “अरुणाज़ स्टोरी” नामक एक
किताब भी लिखी है और उसने ही उच्च न्यायालय में अनुच्छेद ३२ के तहत इनके लिए इच्छा
मृत्यु की मांग की ताकि इन्हें उस दर्द और तकलीफ से छुटकारा मिल जाए जिससे वह
सालों से गुज़र रहीं हैं |
पिछले साल १८ मई को निमोनिया से उनकी मृत्यु हो गयी | वह तो
चली गयी लेकिन इच्छा मृत्यु के उपर एक बड़ी बहस का मुद्दा दे गयी|
भारत में इच्छा-मृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक कृत्य हैं क्योंकि मृत्यु का प्रयास, जो इच्छा के कार्यावयन के बाद ही होगा, वह भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या (suicide) का अपराध है।
इसी प्रकार दया मृत्यु, जो भले ही मानवीय भावना से प्रेरित हो एवं पीड़ित व्यक्ति की असहनीय पीड़ा को कम करने के लिए की जाना हो, वह भी भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 304 के अंतर्गत सदोष हत्या का अपराध माना जाता है।
जीने का अधिकार है तो मरने का क्यों नहीं?
पी. रथीनम् बनाम भारत संघ (1984) के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 की संवैधानिकता पर इस आधार पर आक्षेप किया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है। यानी जीने का अधिकार है तो मरने का भी अधिकार होना चाहिए. लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानकौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में उक्त निर्णय को उलट दिया और साफ़ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत 'जीवन के अधिकार' में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। अतः धारा 306 और 309 संवैधानिक और मान्य हैं।
इतिहास में इच्छा मृत्यु का संदर्भ
भारत में इच्छा-मृत्यु के कई उदाहरण हैं – महाभारत के दौरान महान योद्धा भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। वे शर-शैया पर तब तक लेटे रहे. जब तक सूर्य उत्तरायण नहीं हो गया।स्वामी विवेकानन्द ने स्वेच्छा से योगसमाधि की विधि से प्राण त्यागे थे। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी अपनी मृत्यु की तारीख और समय कई वर्ष पूर्व ही निश्चित कर लिया था।आचार्य विनोबा भावे ने अपने अंतिम दिनों में इच्छा-मृत्यु का वरण किया जब उन्होंने स्वयं पानी लेने तक का त्याग कर दिया था। इंदिरा गांधी उन्हें देखने के लिए गईं थीं। तब वहां मौजूद पत्रकारों की यह मांग ठुकरा दी गई थी कि भावे जी को अस्पताल में दाख़िला किया जाए.
जैन मुनियों और जैन धर्मावलंबियों में संथारा की प्रथा भी इच्छा मृत्यु का ही एक प्रकार है। जो बरसों से प्रचलित है। हाल ही मे जयपुर की महिला विमला देवी जी के संथारे लेने पर समाज में इस पर लंबी बहस खिंची थी।
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