याद
आता है मुझे वो समय जब घर के ड्राइंग रूम में एक चोंगे वाला बेसिक फ़ोन रखा रहता था
| घर में एक घंटी क्या बजी सभी उसे उठाने के लिए लपके | वो भी क्या दिन थे जब फ़ोन
लाइन की तारों से घरों के छज्जे पर जाल बना रहता था | चिड़ियाँ और कौवे उसी पर बैठे
चेह्कते और कौव्वाते रहते थे | आज ना तो वो फ़ोन की लाईनें दिखती हैं और न ही
चिड़ियाँ | सब न जाने कहाँ गुम गये | मुझे
याद है जब दादाजी एग्रो में काम किया करते थे | पूरी सोसाइटी में केवल दो घरों में
ही टेलीफोन था | मैं उस समय बहुत छोटी थी और पापा बिहार के भागलपुर में रहा करते
थे | सप्ताह में दो दिन पापा का फोन दो घर पहले रहने वाली जैसवाल ताई के घर आता था
| हम लोग उन दो दिनों का पूरे हफ्ते इंतजार करते थे | फिर कुछ दिनों बाद घर में
फोन लगवाया तो एसटीडी कॉल करने के लिए पीसीओ वाले से जुगाड़ बैठना पड़ता था | बड़े
मुश्किल दिन थे लेकिन उन दिनों रिश्तों की अहमियत हुआ करती थी | आज मोबाइल नाम का
यंत्र सबके पास हैं और दूरियां तो बस नाम भर की हैं लेकिन रिश्ते भी अब दूरियों की
तरह ही केवल नाम भर के रह गये हैं |
टेलेफोन
के बारे में आजकल के बच्चों को कुछ नहीं मालूम होगा | बचपन से वो माँ बाप को भले
ही न पहचाने मोबाइल के ऐप सारे पहचानते हैं | आपको बता दूं की टेलीफोन का अविष्कार
यूएसए के एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल ने १० मार्च १८७६ में किया था | पहले टेलीफोन लाइन
के लिए लोहे के तारों का प्रयोग होता था जो बाद में ताम्बे के तारों से बदल दिया
गया जो छज्जे छज्जे से होकर जाने लगीं | धीरे धीरे तकनीकी विस्तार होता गया और यह
तार अंडर ग्राउंड हो गये |
सबसे
पहले की टेलिफोन प्रणाली में स्विच
बोर्ड एक जरूरी अंग होता था । इसकी डिजाइनिंग बड़ी टाइप्ड होती थी । यह केद्रीय
टेलिफोन केंद्र यानि की टेलेफोन एक्सचेंज में रहता था । सभी टेलिफोन इससे जुड़े होते थे। सभी टेलिफोन के नंबर इस बोर्ड पर लिखे रहते थे और हर एक
नम्बर के ऊपर एक छोटा सा बल्ब लगा होता था। जब आपका टेलिफोन उठता था तो यह बल्व जल उठता था और
इसके सामने बैठा हुआ टेलिफोन ऑपरेटर एक प्लग की मदद से अपने हेडफोन का कनेक्शन आपके टेलिफोन से स्थापित करता था।
आपसे टेलिफोन नंबर मालूम करके वह आपके टेलिफोन का संबंध उस टेलिफोन से स्थापित करता था और अपने
सामने लगे हुए बटन को दबाकर उस दूसरे टेलिफोन की घंटी बजाता था। इस तरह से वह दूसरे स्थान के व्यक्ति को सूचना देकर आप
दोनों की वार्ता प्रारंभ करता था। अगर कनेक्शन सही नहीं रहा तो यह प्रक्रिया और
जटिल हो जाती थी |
फिर आया डायल फोन
का ज़माना जो सीधे दुसरे से कनेक्शन बनाता था और इसके लिए किसी बीच के आदमी की जरूरत
नही होती थी | इस पर एक गोल चकरी लगी होती थी जिसमे ० से ९ तक के अंक होते थे | उस
चकरी पर निर्धारित नम्बरों के छल्ले में ऊँगली डाल कर उसे घुमाना होता थे जिससे
डायरेक्ट उससे कांटेक्ट होता था जिससे आपको बात करनी है |
धीरे धीरे समय
बदला और इसकी डिजाईन बदल गयी और फिर १९७३ में मार्टिन कूपर द्वारा मोबाइल फोन के
अविष्कार के बाद टेलेफोन की दुनिया में विरानगी छा गयी |
लोग मोबाइल को
अपने साथ हर जगह ले जा सकते थे | इसके आने से बड़ी सहूलियतें हुई लेकिन इसने लोगों
को झूठ बोलना सिखा दिया | टेलीफोन बेचारा अब सिर्फ ब्रॉडबैंड के लिए इस्तेमाल होता
है | मेरे घर के बीच वाले कमरे में रखा हुआ वो सफ़ेद टेलेफोन आज भी मुझे देख रहा है
| कभी कभी जब उसमे छ आठ दिन में कोई घंटी बजती है तो उसकी आवाज़ सुन कर मैं बहुत
खुश हो जाती हूँ | बचपन की धुन सुनाई देने लगती है | जब कभी मैं उसके चोंगे को उठा
कर कोई नम्बर मिलाती हूँ तो उस टेलीफोन की आँखों ( जो सिर्फ मुझे दिखती है ) में
मुझे बड़ी चमक दिखती है | कुछ आंसू भी दिखते हैं जो मुझसे कहते हैं धन्यवाद तुमने
आज मुझे इस्तेमाल किया पर तुरंत वही आंसू दुःख में बदल जाते है यह कहते हुए की उसे
मालूम है अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं |
बुरा लगता है उसे
देख कर | जैसे की कोई बूढा नौकर जो पहले बड़े उत्साह के साथ घर के लिए काम करता था
पर अब कमजोर होकर एक कोने में पड़ा है और उसे कोई नही पूछता | अब तारों पर चिड़ियाँ
नहीं चहकती | समय का चक्र है | कल मैं भी ऐसी ही हो जाउंगी |
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