Saturday, 6 August 2016

क्या दिखा रहा है बुद्धू बक्सा?



टीवी तो देखते ही होंगे आप? बेशक और इन्टरनेट का भी प्रयोग जानते होंगे? हां बिलकुल आखिर आप मुझे इन्टरनेट पर ही तो पढ़ पा रहे हैं | तो मुझे एक सवाल का जवाब देंगे? आज आपने कोई ऐसा विज्ञापन देखा टीवी पर जिसमे किसी भी मायने में एक लड़की या महिला न दिखी हो? मैंने तो नहीं देखा| टीवी पर चाहे विज्ञापन प्रेशर कुकर का हो या आदमियों की दाढ़ी बनाने वाली क्रीम का नारी तो सर्वत्र विद्यमान है| चलो प्रेशर कुकर तो ठीक पर दाढ़ी बनाने वाली क्रीम या आदमियों की अंडरवियर में औरत का क्या काम? उसे तो इन दोनों चीजों का कोई काम नहीं !!
औरत नहीं है ये हैं सेक्स ऑब्जेक्ट-
विज्ञापनों को अगर आप ध्यान से देखें तो आपको कई विज्ञापनों से यह स्पष्ट रूप से लगेगा कि इसमें सीधे सीधे स्त्री को सेक्स आब्जेक्ट के रूप में या उपभोग योग्या के रूप में पेश किया जा रहा है। कंडोम और कंट्रासेप्टिव पिल्स के विज्ञापनों को आप सपरिवार नहीं देख सकते, कंडोम के विज्ञापनों में जो बदलाव विगत डेढ़ दो दशक में आया है उससे समाज में तेजी से हुए बदलाव को महसूस किया जा सकता है।
इन्टरनेट पर और गरम है मामला-
छोड़िये टीवी को इन्टरनेट पर जब आप किसी भी साईट पर जाते होंगे तब तो आपको कोई न कोई देवी बिकिनी पहन कर अपने सुडौल शरीर का प्रदर्शन करती दिख ही जाती होंगी| कभी १४० किलो से ४० किलो तक जाती हुई या कभी घर बैठे लाखों कमाती हुई कमसिन सी काया वाली कोरियाई लडकी| कहीं पे लिखा होगा इंडियन लडकी ने घर बैठे कमाए लाखों रुपये आप भी कमाइए| वगैरह वगैरह| ये सच है या जालसाजी इसकी पड़ताल तो हम बाद में करेंगे लेकिन एक बात नही समझ आती की भई सुई से लेकर जहाज़ तक के सभी विज्ञापनों में ये सेक्सी लड़की का क्या काम?
संचार क्रांति में यह भी मिले है परिणाम-
संचार क्रांति के युग में जबसे से पत्रकारिता के विभिन्न आयामों ने अपना सर उठाया है तबसे विज्ञापन सैनिटरी पैड्स का हो या आफ्टर शेव जेल का हर जगह औरतों को ग्राहकों को आकर्षित करने की वस्तु बना दिया गया| जैसे आप किसी बड़ी कम्पनी में जाइये तो वहां रिसेप्शन पर वेलकम करने के लिए आपको एक बड़ी खूबसूरत सी कन्या मिलेगी और फिर वो अपनी मीठी बातों से आपको अपनी कम्पनी का ग्राहक बना लेगी | उसी तरह से यह विज्ञापनों की लडकियां आपको सम्मोहित करके प्रोडक्ट खरीदने पर मजबूर कर देती हैं| इसी तरह से औरतों का बाजारीकरण हुआ है | और फिर अपने फायदे के हिसाब से कंपनियां उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक प्रेजेंट करती हैं|
इस विषय पर क्या कहता है संविधान?
अक्तूबर 2012 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिला अशोभनीय चित्रण प्रतिबंध कानून 1986 में संशोधन को मंजूरी देकर विज्ञापन दाताओं की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का प्रयास किया था, लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम नजर नहीं आया | पहले यह कानून केवल प्रिंट मीडिया पर लागू होता था, लेकिन संशोधन के बाद इसका दायरा बढ़ा कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इंटरनेट, केबल टीवी, मोबाइल और मल्टीमीडिया को भी इसमें शामिल कर लिया गया | इस कानून के तहत महिलाओं को गलत तरीके से पेश करने का दोषी पाये जाने पर दो से तीन साल की कैद और 50 हजार से एक लाख रुपये का जुर्माना हो सकता है | दोबारा इसी अपराध में लिप्त पाये जाने पर सात वर्ष की कैद और एक से पांच लाख रुपये तक जुर्माना अदा करना पड़ सकता है |
आंकड़ों की माने तो
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पिछले तीन साल के दौरान विज्ञापनों में महिलाओं के अभद्र चित्रण के संबंध में दर्ज करायी गयी शिकायतों की संख्या नौ से बढ़ कर 23 हो गयी है | वर्ष 2010-11 में जहां नौ शिकायतों में से केवल एक सही पायी गयी थी, वहीं 2012-13 में 23 में से 10 शिकायतें सही पायी गयीं | आंकड़ों की मानें तो विज्ञापनों एवं संदेशों में महिलाओं के अशोभनीय चित्रण को रोकने की सरकार की तमाम कोशिशें विफल नजर आती हैं | तमाम कोशिशों के बावजूद पिछले तीन साल के दौरान महिलाओं का ईल एवं अभद्र चित्रण करने और वयस्क सामग्री प्रकाशित, प्रसारित करने को लेकर सरकार ने कार्रवाई की, लेकिन यह प्रवृत्ति थमने की बजाय और बढ़ गयी |
मनोवैज्ञानिक अपील करते हैं विज्ञापन-
विज्ञापनों की सबसे बड़ी ताक़त उनकी अनुनयकारी शक्ति यानी अपील होती है, विज्ञापन कभी तार्किक तो कभी भावनात्मक अपील के ज़रिये दर्शक, पाठक या उपभोक्ता को प्रभावित करना चाहते हैं। विज्ञापन ऐसी युक्तियों, ऐसे संदेशों, ऐसे चित्रों, ऐसे संदेशों, ऐसे संकेतों का प्रयोग करते हैं जो सीधे उपभोक्ता के दिल पर चोट करें। विज्ञापन व्यक्ति के सपनों, आकांक्षाओं, कल्पनाओं, विचार, ज़रूरतों के अहसास, भावनाओं, मनोविकारों से खेलते हैं।

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