Saturday, 6 August 2016

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री; कि सावन आया-




बारिश का मौसम है और आषाढ़ लगभग अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँच गया है | बारी है अब सावन के आने की | हल्की फुहारों के बीच सावन हौले से दस्तक डे देगा| आंगन में अब झूले पड़ेंगे; हाथों में हरी मेंहदी सजेगी और लड़कियां हरी चूड़ियाँ पहन कर सावन मनाएंगी| ऐसे मौसम को हमारे कवियों और लेखकों ने बहुत खूबसूरती से अपनी कलम से उकेरा है|
अमीर खुसरो ने लिखा है-
कहीं पिया विरह है तो कहीं मिलन और कहीं नईहर जाने की उमंग| अमीर खुसरों ने ससुराल में रहने वाली एक लड़की के दिल की वेदना को लिखा है जो अपने मायके जाने को तैयार बैठी है-अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया|
कजरी तीज का महत्व-
पूर्वी और उत्तरी भारत में सावन भादों में कजरी ; सोंधवार; बिदेसिया जैसे लोकगीतों की भरमार हो जाती है| कजरी या कजली उत्तरप्रदेश में गया जाने वाला मुख्य लोकगीत है| जहाँ इसे पूरे समूह में औरतें गाती है वहां इसे ढुनमुनिया कजरी कहते हैं| पंचांग के हिसाब से भाद्रपद यानि भादों की कृष्ण पक्ष की तृतीया को कजरी तीज मानते हैं| इस दिन औरतें सुहाग की लम्बी आयु के लिए देवी की पूजा करती हैं और रात भर रतजगा करती हैं| परम्परा के हिसाब से इस रतजगे में आदमी नहीं आ सकते|
विन्ध्याचल देवी की गीतों में कजरी-
कजरी' की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह तो कन्फर्म है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले होगे उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं। पुराने समय से ही उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जनपद माँ विन्ध्याचल के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अनेक पुरानी कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है। आज कजरी के वर्ण्य-विषय काफ़ी विस्तृत हैं, परन्तु कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है
वर्षा ऋतु का चित्रण
भारत के हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका,अवध की सावनीबुन्देलखण्ड का राछरा तथा मिर्जापुर और वाराणसी की 'कजरी'। लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मस्त कर देने वाला चित्रण मिलता है। इन सब लोक शैलियों में 'कजरी' ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है।
ननद भाभी के रिश्ता दिखाती है कजरी-
'कजरी' के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोक जीवन का दर्शन कराने वाले भी। अधिकतर कजरियों में शृंगार रस की प्रधानता होती है। कुछ कजरी परम्परागत रूप से शक्ति स्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती हैं। भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन में बेहद प्रचलित है। परन्तु अधिकतर कजरी ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं। ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है।
फ़िल्मों में प्रयोग
ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली कजरी का फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में कजरी का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया। इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोक गीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने की थी और इसे संगीतबद्ध किया एस.एन. त्रिपाठी ने। यह गीत महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली 'ढुनमुनिया कजरी' शैली में मौलिकता को बरक़रार रखते हुए प्रस्तुत किया गया। इस कजरी गीत को गायिका गीता दत्त और कौमुदी मजुमदार ने अपने स्वरों से फ़िल्मों में कजरी के प्रयोग को मौलिक स्वरुप प्रदान किया था।


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