आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है।
गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक
साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी
सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त
माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा
करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित
साधकों
को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती
है।
कैसे बना गुरु शब्द-
शास्त्रों में गु का
अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल
अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि
वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।अर्थात अंधकार को
हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।
बलिहारी गुरु आपनो
गोविन्द दियो बताये-
कहते हैं की गुरु से
ऊँचा स्थान हमेशा गुरु या टीचर का होता है क्योंकि गुरु ही हमे ज्ञान का या इश्वर
तक जाने का मार्ग दिखाते हैं| “गुरु बिन भवनिधि तरई
न कोई”
शास्त्रों में भी कहा गया
है की एक गुरु की मदद के बिना इस संसार रूपी भवसागर से पार हो पाना संभव नहीं है |
टीचर हमेशा ज़रूरी
है-
हमें हर राह में हर
क्षेत्र में एक गुरु की ज़रूरत होती है फिर वो चाहे कखग पढ़ाने के लिए हो या मोक्ष
प्राप्ति के लिए| आषाढ़ की पूर्णिमा को
गुरु पूर्णिमा की तरह मानाने का विशेष महत्व है| भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा
व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में
निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी
शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं
हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन
गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
हर कोई गुरु नहीं बन
सकता-
शास्त्रों के अनुसार
ज्ञान देने वाले गुरु के लिए भी कुछ पाबंदियां होती हैं| सभी ज्ञान नहीं दे सकते|
आचार्यपुत्रः
शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः।
आप्तःशक्तोर्थदः साधुः स्वाध्याप्योदश धर्मतः।।
आप्तःशक्तोर्थदः साधुः स्वाध्याप्योदश धर्मतः।।
इस श्लोक में गुरु की श्रेणियों के बारे में बताया गया है कि दस श्रेणी के व्यक्ति धर्म-शिक्षा देने योग्य होते हैं-
1. आचार्य पुत्र यानी गुरु का बेटा
2. सेवा करने वाला अर्थात् पुराना सेवक
3. ज्ञान देने वाला अध्यापक
4. धर्मात्मा यानी वो व्यक्ति जो धर्म के कार्य करता हो।
5. पवित्र आचरण करने वाला यानी अच्छे काम करने वाला
6. सच बोलने वाला
7. समर्थ पुरुष यानी जिस व्यक्ति के पास ताकत, पैसा आदि हो।
8. नौकरी देने वाला
9. परोपकार करने वाला यानी दूसरों की मदद करने वाला
10. भलाई चाहने वाले सगे-संबंधी
2. सेवा करने वाला अर्थात् पुराना सेवक
3. ज्ञान देने वाला अध्यापक
4. धर्मात्मा यानी वो व्यक्ति जो धर्म के कार्य करता हो।
5. पवित्र आचरण करने वाला यानी अच्छे काम करने वाला
6. सच बोलने वाला
7. समर्थ पुरुष यानी जिस व्यक्ति के पास ताकत, पैसा आदि हो।
8. नौकरी देने वाला
9. परोपकार करने वाला यानी दूसरों की मदद करने वाला
10. भलाई चाहने वाले सगे-संबंधी
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