Saturday, 6 August 2016

अगोराफोबिया जानते हैं आप?



हाल ही में शिरीष कुंदर की फिल्म कृति रिलीज़ हुई | फिल्म में मनोज वाजपयी को एक मानसिक बीमारी है जिसमे वह अपने आसपास जो कुछ भी देखता है ;जो उसे सच लगता है वो असल में एक छल है |उसकी एक कृति या कहें की उसके दिमाग की उपज | लेकिन हमारा विषय सपन यानि मनोज वाजपयी नही उसकी गर्लफ्रेंड कृति है जिसे अगोराफोबिया है | शायद अपने पहली बार नाम सुना हो| आज आपको इस बीमारी के बारे में बताती हूँ|
भीड़ का डर होता है
अगोराफोबिया जिसे हिंदी में जनातंक कहते हैं ये असल में भीड़ का डर है | इससे पीड़ित लोगों को ऐसा लगता है की अगर वे बाज़ार में या किसी पब्लिक प्लेस पर जाएँगे तो वहाँ कोई ऐसा हमला हो सकता है जिसमे उनकी मौत हो जाये|
दिल और दिमाग में उपजा भय है अगोराफोबिया
कई बार सामाजिक चिंता की समस्याएं भी एक आधारभूत कारण हो सकती हैं। जिसके परिणामस्वरूप, अगोराफोबिया से पीड़ित व्यक्ति, सार्वजनिक और या अपरिचित स्थानों से बचते हैं, विशेष कर विशाल, खुले, खाली स्थान से, जैसे शॉपिंग मॉल या हवाई अड्डे, जहां छुपने के लिए कुछ जगहें होती हैं। कई मामलों में, पीड़ित अपने या अपने घर तक ही सीमित हो सकता है, जहां उसे इस सुरक्षित जगह से कहीं और जाने में कठिनाई का अनुभव होता है। ज्यादातर मामलों में सार्वजनिक स्थानों का ही डर होता है|
क्या है इस बीमारी के कारण
अगोराफोबिया का सटीक कारण अभी तक पता नही चला है, हालांकि कुछ चिकित्सक मान्य सिद्धांतों की पेशकश करते हैं, जिन्होंने अगोराफोबिया का इलाज किया है या करने का प्रयास किया। इस हालत में अन्य चिंता विकार, एक तनावपूर्ण वातावरण या नशे की उपस्थिति को जोड़ा गया है। नींद की गोलियों के लम्बे उपयोग को अगोराफोबिया के कारणों के साथ जोड़ा गया है।
क्या हैं उपाय?
ज्यादातर लोग जो मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के पास जाते हैं उनमें डर का विकार के शुरू होने के बाद अगोराफोबिया विकसित होता है (अमेरिकी मनोचिकित्सा संगठन, 1998)| अगोराफोबिया को हर बार डरावने हमले के प्रतिकूल व्यवहारिक परिणाम के रूप में बेहतर समझा जा सकता है और इन हमलों के साथ बाद की चिंता और पूर्वव्यस्तता के कारण ग्रसित व्यक्ति वैसी परिस्थितियों से बचने की कोशिश करता हैं जहां भयानक हमला होने की संभावना हो सकती है|
महिलाओं में अधिक होता है जन आतंक
जिस प्रकार अगोराफोबिया पुरूषों में आम रूप से होता है उससे लगभग दुगने स्तर पर महिलाओं में होता है। हालाँकि अनुसन्धान और शोध के परिणामों में अभी तक इस अंतर की कोई समुचित व्याख्या नहीं मिली है फिर भी यह माना जाता है की महिलाओं को मानसिक तौर पर एक साथी की मदद की आवश्यकता अधिक होती है इसिलए इनमे इस बीमारी के संकेत अधिक मिलते हैं|
दस लाख से अधिक है मरीजों की संख्या
अपोलो अस्पताल और कुछ अन्य अस्पतालों के द्वारा किये गये एक शोध में मालूम चला है की भारत में यह एक आम बीमारी है जिसकी संख्या दस लाख प्रति वर्ष से अधिक हो सकती है | यह आमतौर पर १४ साल से ६० साल के लोगों में अधिक पाई जाती है | जिसमे अति शीघ्रडॉक्टर से सलाह की आवश्यकता होती है | इसके लक्ष्ण खुद बखुद नजर आने लगते हैं| इस बीमारी का कोई निदान नहीं लेकिन डॉक्टरी परामर्श से फायदा हो सकता है | इसे ठीक होने में एक साल भी लग सकता है और शायद जीवन भर भी|

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